Book Title: Varddhaman Mahavira
Author(s): Nirmal Kumar Jain
Publisher: Nirmalkumar Jain

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Page 88
________________ यजुर्वेद के निम्न उद्धहरण मे भी स्पष्ट होगा कि आर्यों से पूर्व भारत में ऋषभदेव, अरिष्टनेमि, सुपार्श आदि तीर्थंकर अनार्यों द्वारा भी पूजे जा रहे थे। उन्हें वेदों ने भी पूज्य कहा । उनकी तपोज्जवलता और अमोघ सत्यता का प्रमाण इसके अतिरिक्त क्या हो सकता है कि परस्पर दुराग्रह और बैर से ग्रस्त आर्य और अनार्य दोनों ही उन्हें समान भाव मे पूजते रहे । ॐ ऋषभपवित्रं पुरुहूतमध्वरं यज्ञेषु नग्नं परमं माहसम्तुतं वरं शत्रु जयंनं पशद्रिमाहुतिरिति स्वाहा । ॐ त्रातारमिंद्र ऋषभं वदन्ति । अमृतामिंद्र हवे सुगतं सुपार्श्वमिद्रं हवे शक्रर्माजितं तद्वर्द्धमानपुरुहूतमद्रमाहुरिति स्वाहा । ॐ नग्न गधीर दिग्वाममं ब्रह्मगब्भ सनातनं उपैमि वीरं पुरुषमंर्हतमादित्यवर्णं तमसः परस्तात स्वाहा | ॐ स्वस्तिन इन्द्रो वृद्धश्रवा स्वस्तिनः पूषा विश्ववेदाः स्वस्तिनस्तार्क्ष्यो अग्प्टिनेमि स्वस्तिनो वृहस्पतिर्दधातु । दीर्घायुस्त्वायबलायर्वा शभाजाताय । ॐ ग्क्ष ग्क्ष अरिष्टनेमिः स्वाहा । वामदेव शान्त्यर्थमनविधीयते मोम्माकं अरिष्टनेमिः स्वाहा । भारत में आर्य परम्परा जहां मम्कृत वेद वाणी बनकर विलती रही और आर्यो को सत्यान्वेषण मे प्रवृत्त करती रही वहां इस परम्परा मे बहुत मे नुकसान भी हुए। अनार्यो के प्रति जो बैर आर्यों में था वह अनार्यो के विश्वाम और ज्ञान के प्रति भी बढ़ता गया। इसमें आर्यो का ज्ञान एकागी हो गया । पूर्ण मत्य में आर्य महरूम रह गये । उसके दण्ड स्वरूप आर्य चेतना के दो टुकडे हो गये। एक तो पुपान, इन्द्र, वृहस्पति, द्र आदि देवताओं के प्रकाश में अधकार में प्रकाश की ओर बढ़ता गया । परन्तु चेतन का दूसरा टकडा उतना ही अन्धविश्वास, ग्राम्य देवीदेवनाओं, दोनों-टोटकों की गजलकों में बघना गया। कालान्तर में यह भेद भारतीयों के विश्वासों और कर्मों में भीषण विरोधाभास बनकर प्रगट हुआ । शायद इतिहास इस जाति के प्रति इतना क्रूर न हुआ होना 77

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