Book Title: Varddhaman Mahavira
Author(s): Nirmal Kumar Jain
Publisher: Nirmalkumar Jain

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Page 96
________________ द्वत नहीं है क्योंकि विलक्षण पुरुष महावीर की उपस्थिति हिन्दीभाषियों के मनस से उस तिमिर को छिन्न कर चुकी है। सुन्दरता के इसी स्वरूप की कामना प्लेटो, कोचे, लेसिंग, बर्क, लौन जायनस ने की । वर्डमवर्थ जिम ल्यमी ग्रे के सौन्दर्य से मुग्ध है उसकी आत्मा मन्दर परिवेश में नहीं है । वह स्वयं सौन्दर्य निझर है। चलते-फिरने, मचलने वादल उमे लावण्य दे रहे हैं । झरनों की मीठी झरझर उसके चेहरे में उतर गई है । मोममों का संगीत उसकी नसों में बस गया है। एक महापुरुष के माथ कुछ देर चल लेने के बाद कोई भी जाति फिर अपनी पूर्व स्थिति को नहीं लौटनी। हमारी जाति भी महावीर के माथ दो पग चली है । महावीर हमारी आत्मा को अपने आलोक दे गये हैं। हिन्दी की पाठभूमि में जो मौन्दर्य बोध छुपा है वह वे छीटे हैं जो केवल ज्ञान की चांदनी गतों में उम अक्षय स्रोत मे गिर थे। वह शालीन दिव्य घोप आज भी हिन्दी की मीनारों में गूंज रहा है। एक मान-स्तम्भ ग्च लिया है हिन्दी ने जिमे दूमग महावीर ही तोड़ मकता है । अन्यथा मैकड़ों वर्षों तक भी ये मान्यताएं घमिल न होंगी क्योंकि ये अपनायी नहीं गई हैं। स्वयं हिन्दी ही ऐमी हो गई है। हिन्दी का ममम्नप्रेममाहिन्य उम त्याग, मर्यादा और उज्ज्वलता का प्रतिविम्ब है जो भारतीयों के हृदय में कभी महावीर मौरभ बन कर विला था। हिन्दी माहित्य में आज भी प्रेम की मान्यताएं वे ही हैं जो महावीर की थी, जो अन्यत्व मिटा दे। जो लेना नही । मब कुछ देकर भी मोचना है मै कुछ दे न मका । मैथिलीशरण गुग्न जिम उमिला का वर्णन करते हैं वह प्रेम की इमी परम्पग में पली है । यही वेदना महादेवी की है जो घनीभूत होकर उनरी है हिन्दी माहित्य की पलकों पर। हिन्दी का भविष्य इमी मंयम में है । बर्नार्डशा ने इसी संयम में फूटने सौन्दर्य के महल धागे को देखा था जब सेंट जॉन 85

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