________________
बहुत गहग है। जितना भी हिन्दी के पीछे सौन्दर्य बोध या स्थेटिक कन्मंट है वह पूग महावीर के आत्म-निग्रह (Self Restraint) या मंयम मे जन्य है । महावीर कहते है "इम दुर्दमनीय आत्मा को जीत लो।" इम अहं, म्वन्व या माइक्लोजिकल मल्फ को हिन्दी माहित्य हमेगा प्रेग्नि करना रहा है एक ऐसे निर्वाण की ओर जहां यह मिट जाय, इमको दार्गनिक मृत्य हो जाय, ताकि इमका जन्म अन्तग्नम में बमे मन्दग्म की गोद में हो। यह दार्शनिक मृत्यु (Philosophical Death) प्लेटो को भी विदित थी। पश्चिम का माहित्य लरमन्नीव, दोस्नोवस्की आदि के अमर में इसे भूल गया। परन्तु महावीर के रहने हिन्दी को एंज़िम्टैशियलिम्ट ( Existialist ) माहित्य नही बहका मकता । यह एक बहुत बड़ी देन है महावीर की हिन्दी को जिमका मूल्यांकन नहीं हो मकना जमे मूर्य की रश्मियों का मल्यांकन नहीं होता।
महावीर मुन्दरम् के उपामक है। उनकी नग्नता उमी मुन्दरता की खोज है जिमे लज्जा की आवश्यकता नही। परन्तु एक अन्तर है। उनका मुन्दरम् आत्मा मे भिन्न नहीं है । मन्दग्ना का त्याग सिखाया है महावीर ने । वह मत्र जो मुन्दर लग रहा है जब उमका त्याग कर दंगी आत्मा तब मुन्दरता अनन्य होकर आत्मा के भीतर ही जगेगी। इम नगह हम स्वयं मुन्दग्ना के निर्झर होंगे, मन्दग्ना के लोभी नहीं। यह त्याग भी एक कला है । जो इम कला को जानता है उमे न्यागी हुई चीज़ और मूक्ष्म होकर मिलनी है । यह क्रम चलता रहता है और अन्ततः वह इतनी मुक्ष्म हो जाती है कि आत्मा ही बन जाती है।
मन्दरता की स्थापना हिन्दी साहित्य में महावीर के इसी अन्दाज से हुई है । यह अन्दाज हिन्दी को उर्दू में बिल्कुल अलग कर देना है। ये भापाएं मिलती-जुलती होते हुए भी मौन्दर्य बोध में भिन्न है । उर्दू के पीछे जो मौन्दर्य प्रपात का शोर है वह हिन्दी जमा नहीं है । उर्दू ने सुन्दरता और प्रेमी के द्वैत को माना है । परन्तु हिन्दी की रगों में यह
84