Book Title: Varddhaman Mahavira
Author(s): Nirmal Kumar Jain
Publisher: Nirmalkumar Jain

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Page 78
________________ उपरोक्त विवेचन मे यह बात नीर्थनगे की विचारधाग के अधिक अनुकूल प्रतीत होती है कि निगोद रूप में जीव जोर पुदगल एक ही है। इम तल पर जीव अपने को उन अदय शक्तियों में बिल भी भिन्न नही समझता जो पदार्थ का आदिम्प है अर्थात् जीव और गद्गल में पूर्ण एकना है। यह एक निम्न स्तर की एकता है जहाँ जीव मछिन है और अपनी स्वतंत्र मत्ता को बिल्कुल नही पहचानता। मनल पर बैन नहीं है। जब तीर्थकर कहने ह कि पत्थर में जीव है नीलोग हमने ह कि नम आत्मा कमे हो मक्ती ह परन्तु गीर्थार यह नहीं कह रहे है कि पत्थर में आत्मा है । वे यह नही कर रहे हैं कि निगांद में आत्मा ह । वका रह है। निगोद में जीव है, पत्थर मे जीव है । जीव के मायने उम जीवन में यक्न होना नहीं है जिसे जीव गान्त्र ममझता है। जीवन और हे जो जीव गाग्त्र का विषय नहीं है। वह बन्ने, घटने, उगने आदि जीवन जंगी क्रियाओ मे मक्त है । वह स्थिर जीवन है। उस मान्यता क अनगार जीव का निगोद गरीर ही जीव है। मक मायने यह ना कि निगो नल पर जीव और पुद्गल में भेद नहीं है। अन जिनना निगोंद पदार्थ ह वह ग्वय जीव है । नीधागे की मान्यता के अनगार निगोद में जीय निरन्तर उच्च अवस्था में यानी पृथ्वी, जल आदि म्पों में नियगिन हो रहा है। पृथ्वी, जल आदि म्पो में भी जीव अपने को अपने शरीर में भिन्न नहीं ममझता । यानी यह कहना गलन होगा कि पन्थर में जीव ह। यह कहना नीर्थकगेकी विचारधागा अधिक निकट होगा वि पन्थर म्नय जीव है। यह जीव की वह यिनिह जब वह जग भी जेनन नहीं हो पाया है और पूर्णनया मछिन है। एक क्रम चल रहा है जिसके अनमार कुछ जीव निगोद में पृथ्वी, जल आदि म्पो में विकमित होने रहने है। उमग जाहिर ह कि पृथ्वी, जल आदि पदार्थ निग्लर बह रहे है । यही सिद्धान विग्नन हाती दुनिया का है । दमे ही होएल पदार्थ की निरन्तर रचना के सिद्धान के रूप में प्रस्तुत करना है। इस दृष्टिकोण में जन द्वनवाद वदों के एकत्र के मा 67

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