Book Title: Varddhaman Mahavira
Author(s): Nirmal Kumar Jain
Publisher: Nirmalkumar Jain

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Page 85
________________ है। इसका उद्देश्य था मनोवैज्ञानिक आत्मा को निरन्तर शुद्ध करना और उमे देवना कं, म्वय ईश्वर के निकट करना । यह विश्वाम मनुष्य जाति के लिये आम बान रही है कि इस तरह मनोवैज्ञानिक बलिदान करके हम अपनं को और नाजा नथा पृष्ट कर लेने है । मनग्य अपनी जंगली अवस्था में केवल जीवित रहने ही के लिये बहन में पाप करने को मजवर था। दम कारण उम मल को धोना उनके लिये परमावश्यक था। उस स्थिति में मनोवैज्ञानिक मफाई का उमे एकमात्र यही नगेका नजर आया कि वह पाओं का गलिदान करते हुए यह मच्ची भावना ग्य कि वह म्बय अपना बलिदान कर रहा है । दम नगह वह उम मनोवैज्ञानिक नल पर मर जायेगा। परन्तु मनोवैज्ञानिक नल पर मनप्य नष्ट नहीं होना । अनः नुग्न बाद उमका पुनर्जन्म एक और माफ़ और मथर मनोवैज्ञानिक नल पर हो जायेगा । जिम नरम हम नये वस्त्रों के लिए लालायित रहते है उमी नह प्राचीन मनप्य नई. माफ और घली मनोवैज्ञानिक चादगे के लिये लालायिन था। उन्हें ओर कर वह ममझता था कि उसकी आत्मा का परिकार हो गया। तीर्थकगं की परम्पग विचारो की वह पहली कडी है जिमने मनाय न म भ्रम को नोड़ा, उग कट यथार्थ में पर्गिचत किया कि इम तरह भावना में पराओं में अपना निदान करक वह जिम चीज की प्राप्ति कर रहा है वह आत्मनोधन नहीं है । वह केवल नये कपड़े है जो आत्मा को मिल रहे हैं, जिनमें आत्मा का अपना मैल दूर नहीं होता। दम पर हिमा कर्मों का एक और मल चढ़ता जा रहा है। भले ही मनोवैज्ञानिक वस्त्र कितने ही उजले हो । महावीर ने बलि के पीछे छपे मभी अर्थों को ध्वस्त कर दिया। उन्होंने इस महान गल्प ( math) को विम्फटिन (explode) कर दिया। यह ध्यान देने योग्य ह कि महावीर के पश्चात् आर्य परम्पग में कोई भी महान् दार्गनिक गिगी भी मन का नहीं हुआ जिमने पगबलि को मान्यता दी हो। अम्वमेघ यज्ञ आदि की परम्पग आर्यसंस्कृति 74

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