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आवश्यकता, तब तक नहीं समझता जब तक उसकी पुत्री एक मन्दर युवती न बन जाय । नव फिकर लगती है। तब वह अनायाम ही मन्दरता का पिता हो जाता है । इसी कारण शास्त्रकागे ने म्वर्ग प्राप्ति के लिये पुत्री का होना भी आवश्यक बनाया था। उममे यह दर्जेय आत्मा मन्दग्ना को कुछ देना मीखती है अन्यथा अपनी इन्द्रियों की ग्य्या पर वह मिर्फ सन्दरता मे प्राप्ति खोजती है । मन्दरता का प्रणेता होना यही महावीर का दर्शन है । मन्दरता का लोभी होना दामता है । मन्दग्ना के ग्म में ही लिप्त रहना द्वैत है । मन्दग्ना का त्याग करने को महावीर कहते है नो दमके मायने ये नहीं कि मन्दग्ता गे सब मम्बन्ध छिन्न हो जायंगे। जो आत्मा मन्दग्ना का ही आगार है वह मन्दग्ना मे अलग कैसे होगा । परन्तु निश्चित रूप में महावीर कहते हैं कि जगत में मन्दर लगनी चीजो का भी त्याग कर दो। इसके मायने है कि एक जगह न्यागोगेनो दुमरी जगह पाओगे । इम नल पर दार्शनिक मृन्य को प्राप्त हो जाओ ताकि अगम्य गहगढयों में तुम्हारी ही आत्मा की मन्दग्ना फट पड़े । तुम्हारी आत्मा ही आरिक मन्दग्ना में पुनर्जन्म ले-जमे "प्लेटो" ने कहा था।
वर्मवर्थ ल्यूमीग्रे की मन्दग्ना को दिव्य मानना है । यह ल्यमीग्रे महावीर का वही पुरुप मिह है जोल्यमी में जगहा है। वह मन्दग्ना को जन्म देना जान गई है। विचग्ने हर बादल उमके चेहरे को लावण्य देने ह और झग्ने की अग्झर ध्वनि में जगा मौन्दर्य चपचप उमक रूप में उतर जाता है । वह उम अगम्य स्थिति को जान गई है जहा मौन्दर्य नित नये-नये परिधान पहन अवग्नि हो रहा है। उन दिव्य अधेगें में "ल्यमी" का पुरुष जग गया है। कौन कहता है नारी मक्त नहीं हो मकती। वह कुमारिका जो भागों में अपर्गिचन है और म्वर्ण-गिला मी कठोर देह लिये जीवन की देहरी पर बड़ी है वह अभिजान है, वह पौम्यमयी है । वह मन्दग्ना को जन्म दे रही है। वह पुरुप जो उमकी ओर लालमा भरी दृष्टि में देख रहा है वह दानिक परिभाषा में नारी
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