Book Title: Varddhaman Mahavira
Author(s): Nirmal Kumar Jain
Publisher: Nirmalkumar Jain

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Page 35
________________ कहते है कि जब मनुष्य की आंतरिक प्रवृनिये दुष्ट है नो आदर्शवादिता और उच्च विचारों का एक चन्दोआ बनाना अपने को धोखा देना है। फलम्बम्प जिमनगह की कूटनीति के लिये कुछ वर्षो पहले कूटनीतिज्ञ भी गमिन्दगी महमम करने उम तरह की कुटनीनि आज माधारण व्यक्ति भी बग्न रहे हैं लेकिन उसके लिये गमिन्दा नहीं है। मनुष्य के आदर्शों और उसकी कर्मकिन के बीच एक जबग्दम्न अपरिचय और दुगव आ गया है । मभी उच्च आदर्गो या मात्विक विचारों या मानवीय मूल्यों को मनाय अव्यवहारिक तथा व्यक्तिगत आदर्शवादिना ममझने लगा है। इस नन्ह मम्पूर्ण मनुष्य जाति म्वार्थपरता, आर्थिक गोपण, लोलपता, कमज़ोगें का गोपण, दामना आदि अमानवीय प्रथाओं को पुनः नये रूप मे ग्रहण करनी जा रही है। आज भी आदर्शवादिता की कमी नहीं है । आज भी गद्ध विचारों की कमी नहीं है और आज भी हजारों लोग उच्च मानवीय मूल्यों का उद्घोप कग्ने हुए नही थक रहे हैं । यदि हम महावीर को भी एक ऐमा ही मानवीय मूल्यों का उद्घोपक ममझें तो निश्चय ही उनके द्वाग भी इम जगत का हित नही हो मकना । इन अनेकों उद्घोपकों के बीच उनकी भी उद्घोपणा खो जाएगी क्योंकि समस्या है दूरी की। मनुष्य की कर्म शक्तियों और बौद्धिक शक्ति के बीच की दूरी की। अतः यह ममझ लेना जरूरी है कि महावीर इन आदर्शवादी चिन्नकों, नीनिजों और महापुम्पों में अलग है । यह बात जैनशास्त्र कहते है कि भगवान महावीर को पूर्ण ज्ञान पिछले ही जन्म मे हो चुका था परन्तु फिर भी उन्हें वर्द्धमान वाला यह अन्तिम जन्म लेना पड़ा। इमका कारण था कि पूर्व जन्मों का ज्ञान बौद्धिक था, उमी ज्ञान को व्यवहारिक या फायड की भाषा में मानसिक शक्तियों के तल पर भी स्वतत्र रूप मे अजिन करना आवश्यक था। भगवान बुद्ध ने अपने शिष्यों में कहा था कि केवल बौद्धिक स्वतंत्रता ही पर्याप्त नही है गिप्यों-एक और म्वतंत्रना है, वह है हृदय की स्वतंत्रता जिमके विना बौद्धिक स्वतत्रता या आदर्गवाद व्यर्थ हो जाता

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