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करने का मार्ग नहीं मझाया । महावीर ने अनेकान्तवाद, जीव पुद्गल, अपरिग्रह, अहिंमा, विनय के द्वाग एक मार्ग मझाया है कि मे जीवन की उम विविधता में एकता को प्राप्त कर सकते है । वह जो ब्रह्मम्प में निगकार है वही महावीर की वाणी में जीव तत्त्व बनकर माकार हो गया। ममम्न जीवों में एकता का दर्शन महावीर ने क्यिा । अतः वे लोग बहुन भल करन है जो महावीर के दर्शन को ललिस्टिक गिलिज्म कहते हैं। दरअमल महावीर उन चिन्नको मे मे थे जिन्होंने यह जान लिया था कि चिन्नन विम मीमा तक मामान्य मनग्य के लिये हितकर है और उसके बाद किम प्रकार व्यवहारिक नल पर उमका अनुभव में परिणत होना आवश्यक है । वे जान गये थे यदि वह चिन्तन अनुभव में पग्णिन न किया और उमे हम वहाने चले गये नो हम बद्धि के पार निकल जायगे । बद्धि का मदुपयोग न कर मकेंगे और मच्चरित्रता की आवश्यकता को भी नही समझ मकंगे। प्राणी का प्राणी के प्रति जो व्यवहार हे उमकी कोमलता और बारीक्यिों को वह व्यक्ति नजरअन्दाज कर देगा जो निरन्तर "वन ट्रेक" मस्तिष्क लेकर पूर्ण ब्रह्म की तलाश में निकल जायेगा । अत. महावीर ने विषद् दार्शनिक विषयो पर गिप्यो मे वार्ता नही की। केवल उतना ही दार्शनिक विवेचन किया जितना जीवन को व्यवहारिक वोघ तथा चान्त्रिक उज्ज्वलना प्राप्त करने हेतु आवश्यक था। उमके बाद महावीर ने पूग जोर चरित्र निर्माण पर दिया । वे जानते थे कि इसके आगे वह बौद्धिक ऊंचाइए है जिन्हें पार करने के लिये मजबूत पखो की जरूरत है। जो व्यक्ति चारित्रिक दृढ़ता नही प्राप्त करेगा वह बौद्धिक शन्यों की ओर निर्विरोध बढ़ता जायगा।गन्य मे पहचानने के लिये चारित्रिक आखो की जरूरत है और चरित्र के मायने मनोवैज्ञानिको ने केवल एक लगाये है अनेक मे एक के दर्शन होना। "आन्मवत् मर्वभनेप" मभी प्राणियो को अपने जमा रीएलाइज करना। महावीर ने चरित्र के लिये कुछ नैतिक मूल्यो का बखान नही किया जिममे चरित्र को दवाया या
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