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प्रेरणा नही देता । शायद उस युग में मनुष्य की कर्मगक्ति उसके विचारों के अनुकूल थी और उमे समझाया गया था कि उसके विचार फल से आक्रान्त न हों परन्तु आज उमकी कर्मगक्ति थक गई है । हजारों वर्षों से आदर्शों के लिये लड़ते-लड़ते और अपने को व्यर्थ जाते देखकर आज मनप्य शक्ति ने घुटने टेक दिये है। प्रश्न यह है कि क्या महावीर की वाणी मे सामर्थ्य है कि वह इम कर्मशक्ति को प्रेरित कर सके? आज वे ही विचार मनुष्य का कल्याण कर मकने है जो सीधे हमारे विचारों से नही हमारी कर्मशक्ति मे टकगये और उसे उद्वेलित करें । आज प्रजातंत्र के युग में लगभग ममम्त मभ्य ममाज ने महावीर के बिनागे को अपना लिया है । मनप्य की ममानता, बन्धत्व, मंत्री, परोपकार, क्षमा आदि मंयक्त गाद मघ के गिद्धान बन चके हैं। परन्तु फिर भी आज के मनप्य की कर्मगक्ति उमे विपरीत दिशा की ओर ले जा रही है। वह चालाकी, गोपण, परिग्रह. हिमा, लामा, जघन्य-अपगघ की ओर बढ़ रहा है। यह एक विचित्र विडम्बना है कि ज्यो-ज्यो मभ्य जगत ने इन आदर्शों को गाद्रीय एव अन्तर्गष्ट्रीय स्तर पर अपनाया त्यांन्यों मनुष्य का मत्कर्मों को करने का स्वाभाविक जोग खत्म होता गया। मम्भवतः महावीर के विचारों को विगत मैकडो वर्षों में उम प्रकाश में न रखा गया हो जिममे वे कर्मशक्ति को दिखाई देने और वह उनमे प्रेरित होती। कोई न कोई भल मनग्य ने अवश्य की है कि इतनी बडी वैचारिक सम्पत्ति होते हुए भी वह इम में लाभ न उठा मका । मम्भवतः एक विशेप बात की ओर हमाग ध्यान गत शताब्दियों में नहीं गया कि महावीर ने दार्गनिक वाद-विवादों में अपने गिायों को उन्माहित नही किया। उन्होंने मम्यक् चरित्र को अधिक महत्व दिया और विचार से पहले आचार को प्राथमिकता दी। उन्होंने मनाय में अपेक्षा की कि वह अपनी कर्मगक्ति को अनगामिन करे और दानिक विचारों मे न पडे । उन्होंने मनप्य को वे ही मग्ल विचार दिये जिमसे उनकी कर्मशक्नि विना उलझे मम्यक् चरित्र के पथ पर बढ़ सके । मनुष्य के
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