Book Title: Vaishali Institute Research Bulletin 6
Author(s): L C Jain
Publisher: Research Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
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( ८ )
लाभ संवरण नहीं कर सका था । इतने में ही अचानक सूचना मिली कि शाम अधिक हो गई है, इसलिए आपको बोलने का समय नहीं मिलेगा । मैंने मन ही मन सोचा कि चलो छुट्टी मिली। किन्तु दूसरे ही क्षण पण्डित जी की स्लिप आ गई कि कम से कम समय में आपको निबन्ध की सारी बातें कहना है । मंच पर उपस्थित होते ही कहा गया कि पाँच मिनट से अधिक का समय नहीं है । मेरे लिए तो वह परीक्षा की घड़ी थी । लेकिन निबन्ध अच्छी तरह से सोच विचार कर लिखा गया था इसलिए अपनी बात कहने में कुछ कठिनाई नहीं हुई, बल्कि छह-सात मिनट में ही सारांश धारा प्रवाह बोल गया । अन्त में जैसा स्वाभाविक था कुछ विद्वानों की दृष्टि में मैं "ब्रात्यों" के सम्बन्ध में सही नहीं बोला था । किन्तु उनका समाधान करने का साहस मैं नहीं जुटा पा रहा था । उन सबका समाधान पूज्य पण्डित जी ने विस्तार से किया । उस समय सबको सुनकर मेरे मन में यह धारणा बन गई कि गुरुवर्य की यही विशेषता है कि प्राचीन और नव्य दोनों ही प्रकार की विद्याओं तथा पद्धतियों में वे पारंगत हैं । इसलिए हमें जैन विद्या के क्षेत्र में कुछ कार्य करने के लिए आगे बढ़ना है तो यही एकमात्र मार्ग है । उस दिन को स्मरण करके आभार स्वीकार करते हुए मैं बारम्बार गुरुवर्य को प्रणाम करता हूँ । यदि आप मुझे आगे न लाये होते तो मेरे जीवन में यह ज्ञान की मशाल प्रज्वलित नहीं होती और मैं भी कूप - मण्डूक की तरह शास्त्र की गद्दी पर गोता खाता रहता ।
इसमें कोई सन्देह नहीं है कि पण्डित जी की जैनधर्म और श्रमण संस्कृति में दृढ़ आस्था झलकती थी । उज्जैन का वह दिन आज भी स्मृति पटल पर सजीव है जब जैन धर्म और वेदान्त की तुलना को विशाल आम सभा में सुनकर भूतपूर्व उपकुलपति डा० शिवमंगल सिंह 'सुमन' ने यह कहा था कि आज भी पण्डित जी के विचारों में ताजगी है, भाषा में आज भी कसावट है, छोटे-छोटे गठे हुए वाक्य उनके भाषण में सहज ही अभिव्यक्त होते हैं । बनारसी पण्डित में जो तेजस्विता होती है वह पण्डित जी में कूट-कूट कर भरी थी । कैसा भी विषय क्यों न हो ? उनकी वक्तृता से उसमें चमक आ जाती थी । वाणी में ओज, विद्वत्ता की छाप और गुणों की गरिमा से उनका व्यक्तित्व सबसे निराला स्पष्ट रूप से प्रतिबिम्बित था । आज तो वाराणसी में भी उनकी कोटि के विद्वान् विरल
ही हैं । वे विद्वत्ता, वक्तृता और लेखन तीनों में युग-युगों तक जैन समाज में अद्वितीय स्थान
अनुभव होता है । यह
बनाये रहे । आज हमें भी उनका शिष्य कहलाने में गौरव का सुनिश्चित है कि ज्ञात-अज्ञात प्रेरणा के बिना मनुष्य आगे बढ़ने का पुरुषार्थं नहीं कर पाता है । अपने सादे जीवन को जिस ऊँचाई तक ले गये वह आज भी हमारे लिए आदर्श है । उनकी सेवा, निस्पृहता, सादगी, गुणग्राहकता, शोध व अनुसंधान की प्रवृति आदि अनेक गुण किसी भी नवोदित विद्वान् के विकास के लिए वह दीप स्तम्भ है, जो युग-युगों तक उस मार्ग से गुजरने वालों का पथ सदा आलोकित करता रहेगा । साहित्य, समाज, संस्कृति और धर्म मानों सभी एक साथ मूर्तिमान थे । उनका वर्णन शब्दों की सीमा से परे है । आने वाले युग ही उनका वास्तविकमूल्यांकन कर सकेंगे ।
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