Book Title: Updesh Ratnakara
Author(s): Munisundarsuri, Amrutlal
Publisher: Devchand Lalbhai Pustakoddhar Fund

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Page 369
________________ ॥ अथ द्वितीयस्तरङ्गः॥ भावनोपरि दृष्टान्तपञ्चकेन व्याख्यातं "जिणवयणामयभाविअ त्ति” पदम् । अथ जिनवचनामृतभावितश्च भीरुरेव काभवतीति "भीरू पाव त्ति” व्याख्यायते-पापाद् भीरुः सम्यग्दृष्टित्वेन मुक्तियोग्यत्वात् शिवपदसुखं लभते इति योगः। सम्यग्दृष्टिहिं पापभीरुत्वात् आजीविकाद्यर्थमारम्भादिषु प्रवर्तमानोऽपि सशङ्कत्यादिनाऽल्पमेव कर्म बध्नाति । यदुतम्-सम्मदिठी जीवो, जइ वि हु पावं समायरइ किंचि। अपोसि होइ बंधो, जेण न निद्धंधसं कुणइ ॥ १॥ पापभीरुश्च पापहेतुभ्यः प्रमादादिभ्यो मातापित्रादिभ्योऽपि च विभेति, मातापित्रादीनामपि स्नेहा रोषादिना वा धर्मविघ्नकरत्वेन पापहेतुत्वात् , धर्मविघ्नकराश्च मातापित्रादयः संसारदुःखभयहेतुत्वेन तत्त्वतो भयरूपा एव , यदुक्तं श्रीसूत्रकृदङ्गे-माया य पिया य लुप्पइ, नो सुलहा सुगई वि पिच्चओ। एयाई भयाई पहिया, आरंभा विरमिज सुबए ॥१॥ अथ ज्ञातेभ्य एव भयहेतुभ्य आत्मा रक्षितुं शक्यते इति तानेवाह पिय १ माय २ऽवच्च ३ भजा ४, सयण ५ धणा ६ सवलतिथि ७ मंति ८ निवा ९। नायर १० अहम पमाया ११, परमत्थभयाणि जीवाणं ॥१॥ व्याख्या-पित्रादयः सवलतीर्थकादयश्च एते सर्वेऽप्यहमेति पदस्य प्रत्येक योजनादधर्माणो जिनधर्मरहिताः प्रमादाश्च पञ्च, कारणे कार्योपचारादनन्तसंसारभ्रमणादिदुःखदायित्वेन भयहेतुत्वात् परमार्थतस्तत्त्ववृत्त्या भयानि परमार्थभ 2000000000000000 Join Education For Private Personal Use Only

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