Book Title: Updesh Ratnakara
Author(s): Munisundarsuri, Amrutlal
Publisher: Devchand Lalbhai Pustakoddhar Fund
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मुनिसुन्दर सू० वि०
॥ २११ ॥
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॥ अथ सप्तमस्तरङ्गः ॥
मीनदृष्टान्तेन चतुर्भङ्गीमेव प्रकटयितुं पुनराह -
अणुसोअं १ पडिसोअं २ अंतो ३ मज्झे ४ चरन्ति जह मीणा । चहा इअ सुअधम्मं, पइ मुणिसावयजिआ हुन्ति ॥ १ ॥
‘सबओ चरा' इति पञ्चमभङ्गपदं व्युत्सृज्य शेषा व्याख्या सर्वापि प्राग्वदेव ज्ञेयेति न पुनः प्रतन्यते । तथा च श्रीस्थानाङ्गे चतुःस्थानकाधिकारे - " मच्छा चउबिहा पन्नत्ता, तं जहा - अणुसोअचारी १ पडिसोअचारी २ अंतचारी ३ मज्झचारी " इति ।
॥ इति श्रीमुनिसुन्दर सूरिविरचिते श्रीउपदेशरत्नाकरे मध्याधिकारे तृतीयेऽंशे सप्तमस्तरङ्गः ॥ ॥ सम्पूर्णस्तृतीयोऽंशः ॥
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उपदेशर तरंग ७
॥ २११ ॥
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