Book Title: Tattvarthadhigam Sutraam Tasyopari Subodhika Tika Tatha Hindi Vivechanamrut Part 03 04
Author(s): Vijaysushilsuri
Publisher: Sushil Sahitya Prakashan Samiti
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( १८ ) का अवगाहन करके जीवाजीवादि तत्त्वों को लोकप्रिय बनाने के लिए प्रतिगहन और गम्भीर दृष्टि से नवनीत रूप में इसकी अति सुन्दर रचना की है। यह श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्र संस्कृत भाषा का सूत्र रूप से रचित सबसे पहला अत्युत्तम, सर्वश्रेष्ठ, महान् ग्रन्थरत्न है। यह ग्रन्थ ज्ञानी पुरुषों को साधु-महात्माओं को विद्वद्वर्ग को और मुमुक्षु जीवों को निर्मल आत्मप्रकाश के लिए दर्पण के सदृश देदीप्यमान है और अहर्निश स्वाध्याय करने लायक तथा मनन करने योग्य है। पूर्व के महापुरुषों ने इस तत्त्वार्थसूत्र को 'अर्हत् प्रवचन संग्रह' रूप में भी जाना है। ____ग्रन्थ परिचय : यह श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्र जैनसाहित्य का संस्कृत भाषा में निबद्ध प्रथम सूत्रग्रन्थरत्न है। इसमें दस अध्याय हैं। दस अध्यायों की कुल सूत्र संख्या ३४४ है तथा इसके मूल सूत्र मात्र २२५ श्लोक प्रमाण हैं। इसमें मुख्यपने द्रव्यानुयोग की विचारणा के साथ गणितानुयोग और चरणकरणानुयोग की भी अति सुन्दर विचारणा की गई है। इस ग्रन्थरत्न के प्रारम्भ में वाचक श्री उमास्वाति महाराज विरचित स्वोपज्ञभाष्यगत सम्बन्धकारिका प्रस्तावना रूप में संस्कृत भाषा के पद्यमय ३१ श्लोक हैं, जो मनन करने योग्य हैं । पश्चात्
[१] पहले अध्याय में-३५ सूत्र हैं। शास्त्र की प्रधानता, सम्यग्दर्शन का लक्षण, सम्यक्त्व की उत्पत्ति, तत्त्वों के नाम, निक्षेपों के नाम, तत्त्वों की विचारणा करने के द्वारा ज्ञान का स्वरूप तथा सप्त नय का स्वरूप आदि का वर्णन किया गया है।
[२] दूसरे अध्याय में-५२ सूत्र हैं। इसमें जीवों के लक्षण, औपशमिक आदि भावों के ५३ भेद, जीव के भेद, इन्द्रिय, गति, शरीर, आयुष्य की स्थिति इत्यादि का वर्णन किया गया है।
[३] तीसरे अध्याय में-१८ सूत्र हैं। इसमें सात पृथ्वियों, नरक के जीवों की वेदना तथा आयुष्य, मनुष्य क्षेत्र का वर्णन, तिथंच जीवों के भेद तथा स्थिति आदि का निरूपण किया गया है।
[४] चौथे अध्याय में-५३ सूत्र हैं। इसमें देवलोक, देवों की ऋद्धि और उनके जघन्योत्कृष्ट प्रायुष्य इत्यादि का वर्णन है।
[५] पाँचवें अध्याय में-४४ सूत्र हैं। इसमें धर्मास्तिकायादि अजीव तत्त्व का