Book Title: Tattvarthadhigam Sutraam Tasyopari Subodhika Tika Tatha Hindi Vivechanamrut Part 03 04
Author(s): Vijaysushilsuri
Publisher: Sushil Sahitya Prakashan Samiti
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श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रे
[ ४।२०
इनके ऊपर सौधर्म और ऐशान कल्प के समान उत्तर दक्षिणदिशा में नौवाँ श्रानतकल्प तथा दसवाँ प्राणत कल्प है । अर्थात् - दक्षिण विभाग में प्राणत कल्प प्राया है । आनतकल्प से प्राणत कल्प कुछ ऊपर है । इनके ऊपर समश्रेणी में सनत् कुमार और माहेन्द्रकल्प के समान ग्यारहवाँ प्राररणकल्प तथा बारहवाँ अच्युतकल्प श्राया है। अर्थात् - प्रान्त के ऊपर प्रान्त की समश्रेणी में प्रारण तथा प्राणत के ऊपर प्राणत की समश्रेणी में अच्युतकल्प है। प्रारण से अच्युत कुछ ऊपर है ।
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इस प्रकार बारह कल्प अर्थात् देवलोक हैं । इन कल्पों के ऊपर क्रमश: एक-दूसरे के ऊपर नौ विमान हैं । वे पुरुषाकृति लोक के ग्रीवाप्रदेश पर अवस्थित हैं । अथवा उस ग्रीवा के ये सब आभरणभूत हैं । इसलिए इनको ग्रैव, ग्रीव्य, ग्रैवेय तथा ग्रैवेयक कहते हैं । इनके ऊपर विजयादिक पाँच महाविमान हैं। जो विजय, वैजयन्त, जयन्त, अपराजित और सर्वार्थ सिद्ध विमान इन नामों से सुप्रसिद्ध हैं । वे पाँचों विमान सबसे ऊपर यानी प्रधान होने से अनुत्तर विमान कहलाते हैं । सौधर्म कल्प से लेकर सर्वार्थसिद्ध पर्यन्त सभी का अवस्थान क्रम से ऊपर-ऊपर है । नौ ग्रैवेयक से ऊपर के विमानों में उत्पन्न हुए जीव (देव) अल्प संसारी होने से उत्तम हैं अर्थात् श्रेष्ठप्रधान हैं। उन देवों से कोई भी देव उत्तम प्रधान नहीं है । इसीलिए उनके विमानों को अनुत्तर विमान कहते हैं । अथवा देवलोक के अन्त में प्राये हुए होने से ही उनके उत्तर कोई भी विमान न होने से वे पाँच विमान अनुत्तर कहलाते हैं ।
सौधर्म देवलोक से अच्युत देवलोक पर्यन्त के देव कल्पोपपन्न कहलाते हैं, तथा इनसे ऊपर के सभी कल्पातीत कहलाते हैं । वे सब इन्द्र के समान हैं, इसलिए 'अहमिन्द्र' कहलाते हैं। किसी भी कारणवश वे मनुष्यलोक में नहीं आते हैं तथा न अपने स्थान से ही चलित होते हैं । हलन चलन की क्रिया करने वालों को ही कल्पोपपन्न कहते हैं ।
विशेष - पहले सौधर्म कल्प- देवलोक के इन्द्र का नाम शक्र है, और उसकी सभा का नाम सुधर्मा है । इसलिए इस सभा के नाम के सम्बन्ध से ही पहले देवलोक को सौधर्म कहते हैं । दूसरे कल्प- देवलोक के इन्द्र का नाम ईशान है । उसके निवास के कारण ही दूसरे देवलोक को ऐशान कहते हैं ।
इसी तरह आगे इन्द्रों के निवास के सम्बन्ध से ही सनत्कुमार आदि देवलोक का नाम समझ लेना चाहिए। यह व्यवहार सौधर्म आदि बारह देवलोक में ही है । इनके ऊपर नौ ग्रैवेयक हैं। इनको ग्रैवेयक कहने का कारण यह है कि यह लोक पुरुषाकार है । उसके ग्रीवा के प्रदेश पर ये अवस्थित हैं । या उस ग्रीवा के ये आभरणभूत हैं । अतएव इनको ग्रैवेयक कहने में आता है। नौ ग्रैवेयकों के ऊपर विजयादि पाँच महाविमान हैं। उनको अनुत्तर कहते हैं । इनके ये विजयादि नाम देवों के नाम के सम्बन्ध से है ।
पहले विजयादि तीन विमानों के देव विनयशील अर्थात् स्वभाव से ही जयरूप हैं। उन्हों अपने अभ्युदय के विघ्नकारणों को भी जीत लिया है। इसलिए उनको क्रम से विजय, वैजयन्त तथा जयन्त कहते हैं । उनके विमानों के भी क्रमशः ये ही नाम हैं। जो देव उन विघ्न के कारणों से पराजित नहीं होते हैं, उनको अपराजित कहते हैं । इसलिए उनके विमान भी