Book Title: Tattvarthadhigam Sutraam Tasyopari Subodhika Tika Tatha Hindi Vivechanamrut Part 03 04
Author(s): Vijaysushilsuri
Publisher: Sushil Sahitya Prakashan Samiti
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४।२७ ]
चतुर्थोऽध्यायः * अनुत्तरस्य विजयादिचतुष्कविमानानां देवानां विशेषत्वम् * ॐ मूलसूत्रम्
विजयादिषु द्विचरमाः ॥ ४-२७ ॥
* सुबोधिका टीका * द्विचरमाः देवाः विजयादिषु अनुत्तरेषु विमानेषु एव भवन्ति । द्विचरमा इतिततश्च्युताः द्विवारं जन्म धारयन्ति । पश्चात् निर्वाणं प्राप्नुवन्ति । सकृत् सर्वार्थसिद्धनामकमहाविमान-देवाः एकमेव मनुष्यभवं प्राप्य अवश्यमेव मोक्षं प्राप्नुवन्ति ।। ४-२७ ॥
* सूत्रार्थ-विजयादि चार अनुत्तर विमानों के देव दो बार जन्म धारण करके तथा सर्वार्थसिद्धविमान के देव एक बार जन्म धारण करके निर्वाण-मोक्ष प्राप्त करने वाले हैं ।। ४-२७ ।।
ॐ विवेचनामृत है अनुत्तर विमान पाँच प्रकार के हैं जिनमें विजय, वैजयन्त, जयन्त और अपराजित इन चार विमानों के देव द्विचरमा होते हैं।
विजयादि चार विमान में दो बार जाने वाले चरमशरीरी होते हैं। अर्थात् अधिक से अधिक दो बार विजयादि विमान में देवभव धारण कर मोक्ष प्राप्त करते हैं। जैसे-अनुत्तर विजयादि विमान से च्युत होकर मनुष्य-जन्म पाते हैं, तथा इस मनुष्य-जन्म से फिर अनुत्तर विजयादि में उत्पन्न होते हैं। वहाँ से पुनः मनुष्य का जन्म पाकर निर्वाण-मोक्ष प्राप्त करते हैं। इस तरह यहाँ पर दो भव मनुष्यभव की अपेक्षा कहे हैं। अन्यथा देवभव के साथ तीन भव होते हैं। मनुष्य भव की अपेक्षा विजयादि देवों को द्विचरम भव वाले कहा है। सर्वार्थसिद्ध विमानवासी देव तो नियमात् एकावतारी होते हैं ।
विशेष-विजयादि पाँच प्रकार के अनुत्तर विमान के देव लघुकर्मी हैं। क्योंकि जिन मुनियों के मोक्ष की साधना अल्प ही रह गई हो, वे यहाँ इन पाँच विमानों मे उत्पन्न होते हैं। इन अनुत्तर विमानों में उत्पन्न हुए प्राणियों-जीवों का जो पूर्व भव में अन्तर्मुहूर्त का ही आयुष्य विशेष होता, या छट्ठ (बेला) के तप जितनी निर्जरा विशेष होती तो वहाँ से ही सीधे मोक्ष में चले जाते। किन्तु भवितव्यतादिकना योगे अल्प साधना शेष रह जाने से सर्वार्थसिद्ध विमान में उत्पन्न होते हैं ।। (४-२७)