Book Title: Tattvarthadhigam Sutraam Tasyopari Subodhika Tika Tatha Hindi Vivechanamrut Part 03 04
Author(s): Vijaysushilsuri
Publisher: Sushil Sahitya Prakashan Samiti
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४१४०-४१ ]
चतुर्थोऽध्यायः
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卐 विवेचनामृत अब सौधर्मादिक की जघन्यस्थिति-पायुष्य का वर्णन करते हैं। वह भी अनुक्रम से सौधर्मकल्पादिक के विषय में ही जाननी चाहिए।
प्रथम सौधर्मकल्प (देवलोक) में और द्वितीय ऐशानकल्प (देवलोक) में देवों की जघन्यस्थिति क्रम से एक पल्योपम और एक पल्योपम से कुछ अधिक होती है।
अर्थात्-सौधर्मनामक प्रथम कल्प (देवलोक) में देवों की जघन्य स्थिति-आयुष्य का प्रमाण एक पल्योपम का है। तथा ऐशाननामक द्वितीय कल्प-देवलोक में देवों की जघन्यस्थिति आयुष्य का प्रमाण एक पल्योपम से कुछ अधिक है।
अपरजघन्य तथा निकृष्टजघन्य दोनों शब्दों का अर्थ एक ही होता है । तथा परप्रकृष्ट और उत्कृष्ट दोनों का भी एक ही अर्थ समझना चाहिए । (४-३६) ॐ मूलसूत्रम्
सागरोपमे ।। ४-४०॥
* सुबोधिका टीका * सानत्कुमारनामककल्पे देवानां जघन्यस्थितेः प्रमाणं द्व सागरोपमे भवतः ।। ४-४० ॥
___ * सूत्रार्थ-सानत्कुमारकल्पवर्ती देवों की जघन्य स्थिति दो सागरोपम की है ।। ४-४० ॥
ॐ विवेचनामृत है तृतीय सानत्कुमार नामक कल्पवर्ती देवों की जघन्यस्थिति-आयुष्य का प्रमाण दो सागरोपम का है। अर्थात् –उनकी जघन्यस्थिति दो सागरोपम की जानना । (४-४०) ॐ मूलसूत्रम्
अधिके च ॥ ४-४१॥
* सुबोधिका टीका * चतुर्थमाहेन्द्रकल्पवर्ती - देवानां जघन्यस्थितिरधिके द्वे सागरोपमे भवतः ।। ४-४१ ॥