Book Title: Tattvarthadhigam Sutraam Tasyopari Subodhika Tika Tatha Hindi Vivechanamrut Part 03 04
Author(s): Vijaysushilsuri
Publisher: Sushil Sahitya Prakashan Samiti
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४।२० ]
चतुर्थोऽध्यायः
[ ३६
प्रथम सुधर्मा नामशक्रस्य देवेन्द्रस्य सभा सा तस्मिन्नस्तीति सौधर्मः कल्पः । ईशानस्य देवराजस्य निवासः ऐशानः । ग्रैवेयकास्तु लोकपुरुषस्य ग्रीवा प्रदेशविनिविष्टा ग्रीवाभरणभूता ग्रैवा ग्रीव्या ग्रैवेया ग्रैवेयकाः वा । अनुत्तराः पञ्च देवनामान एव । विजिता अभ्युदयविघ्नहेतवः एभिरिति विजय वैजयन्त जयन्ताः । तैरेव विघ्नहेतुभिः न पराजिता अपराजिताः । सर्वेषु प्रभ्युदयार्थेषु सिद्धाः सर्वार्थसिद्धाः । विजितप्रायाणि वा कर्माण्येभिरुपस्थित भद्राः परीष हैरपराजिताः सर्वार्थषु सिद्धा: सिद्धप्रायोत्तमार्था इति विजयादय इति ।
अतः
सामान्यतया विजयादि पञ्चानुत्तरविमानेषु देवैः कर्मभारं विजितम् । गुरुसघनकर्मरहितञ्च लघुतन्युक्तं भवति तेषां जीवनम् । तेषां निर्वाणोऽपि
सन्निकट: ।। ४-२० ॥
* सूत्रार्थ - सौधर्म, ऐशान, सनत्कुमार, माहेन्द्र, ब्रह्मलोक, लान्तक, महाशुक्र, सहस्रार, प्रानत, प्राणत, आरण और अच्युत ये बारह कल्प हैं । अच्युत कल्प के ऊपर नवग्रैवेयक हैं । इनके ऊपर विजय, वैजयन्त, जयन्त, अपराजित तथा सर्वार्थसिद्ध नामक पाँच अनुत्तर विमान हैं ।। ४-२० ।।
5 विवेचनामृत 5
उनके निवासस्थान सौधर्म, ईशान, सनत्कुमार, माहेन्द्र, ब्रह्मलोक, लान्तक, महाशुक्र, सहस्रार, अनत, प्रारणत, प्रारण और अच्युत ये बारह कल्प-देवलोक हैं। ज्योतिष्क चक्र से असंख्यात योजन ऊपर पहला सौधर्मकल्प है । वह मेरुपर्वत से दक्षिण दिशा के आकाशप्रदेशों में अवस्थित है । यह पूर्वपश्चिम लम्बा और उत्तरदक्षिण चौड़ा है। इसकी लम्बाई तथा चौड़ाई असंख्यात कोटाकोटि योजन की है । इस सौधर्म कल्प का विस्तार लोक के अन्त तक है । इसकी प्रकृति प्रकार चन्द्रमा के समान है । तथा यह सर्वरत्नमय और अनेक शोभानों से समलंकृत है ।
इसकी उत्तरदिशा में दूसरा ऐशानकल्प है । वह सौधर्म कल्प से कुछ ऊपर के भाग में है । दोनों कल्प समश्रेणी में नहीं हैं । सौधर्म कल्प से समश्रेणी असंख्य योजन ऊपर जाने पर तीसरा सनत्कुमार कल्प है । ऐशान कल्प से असंख्य योजन ऊपर ऐशान की समश्रेणी में चौथा माहेन्द्रकल्प है ।
इन दोनों के ऊपर पूर्ण चन्द्रमा के आकार वाला मध्यवर्ती पाँचवाँ ब्रह्मलोक कल्प है । अर्थात् वह ठीक मेरु शिखा की समश्रेणी पर है। इसके ऊपर समश्रेणी में अनुक्रम से छठा लान्तक कल्प, सातवाँ महाशुक्र कल्प तथा आठवाँ सहस्रारकल्प ये तीन कल्प श्राये हैं । अर्थात्ब्रह्मलोक के ऊपर समश्रेणी में लान्तक, लान्तक के ऊपर समश्रेणी में महाशुक्र, तथा महाशुक्र के ऊपर सहस्रार देवलोक आता है ।