Book Title: Tattvarthadhigam Sutraam Tasyopari Subodhika Tika Tatha Hindi Vivechanamrut Part 03 04
Author(s): Vijaysushilsuri
Publisher: Sushil Sahitya Prakashan Samiti
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श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रे
[ ४।२३
(३) वेदना-सामान्यपने प्रायः देव सातावेदना अर्थात् सुख का ही अनुभव करते हैं, क्वचित् दुःख उत्पन्न हो तो भी अन्तर्मुहूर्त से अधिक नहीं रहता है। सातावेदना भी अधिक से अधिक छह मास पर्यन्त एकसी सामान्य रूप रहकर पश्चात् अवश्यमेव न्यूनाधिक रूप से उसमें परिवर्तन होता है।
(४) उपपात-उपपात से अभिप्राय है-उत्पत्तिस्थान की योग्यता। अन्यलिंगी यानी 'जनेतरलिंग' मिथ्यात्वी बारहवें देवलोक पर्यन्त उत्पन्न हो सकता है। द्रव्यचारित्रलिंगी मिथ्यादृष्टि अवेयक पर्यन्त उत्पन्न होते हैं। सम्यग्दृष्टि संयत पहले सौधर्मदेवलोक से यावत् सर्वार्थसिद्ध पर्यन्त उत्पन्न होते हैं।
___ इससे यह सिद्ध होता है कि सम्यग्दृष्टि संयत जघन्य से भी सौधर्मदेवलोक से नीचे उत्पन्न नहीं होते हैं। जघन्य से सौधर्मदेवलोक में उत्पन्न होते हैं। चौदह पूर्वधारी संयती छठे देवलोक से नीचे उत्पन्न नहीं होते हैं। अर्थात् चतुर्दशपूर्वी संयती ब्रह्मदेवलोक से सर्वार्थसिद्ध पर्यन्त उत्पन्न होते हैं।
(५) अनुभाव-लोकस्थिति, लोकानुभव, लोक स्वभाव, विश्व-जगद्धर्म अनादि परिणामसंतति है। विमान तथा सिद्धशिलादि निराधारपने आकाश में रहे हुए हैं। इसका मुख्य कारण लोकस्थिति ही है।
अनादि अनन्तकालीन विश्व में अनेक बातें ऐसी हैं कि जो लोक स्वभाव से लोकस्थिति से ही सिद्ध होती हैं। जैसे-तीर्थंकर भगवन्तों के जन्माभिषेक, केवलज्ञानोत्पत्ति, दिव्य समवसरण की रचना तथा मोक्षनिर्वाण आदि के समय इन्द्रों के आसन कम्पायमान होते हैं। ग्रेवेयक देवों के स्थान कम्पायमान होते हैं। अनुत्तरवासी देवों की शय्याएँ भी कम्पायमान होती हैं। तत्पश्चात् अवधिज्ञान के उपयोग द्वारा तीर्थकर नामकर्म के उदय से उत्पन्न हुई तीर्थंकरों की विभूति 'ऐश्वर्य' को अवधिज्ञान से देखकर संवेग 'भक्ति युक्त वैराग्य' उत्पन्न होने से सत्धर्म बहुमान से प्रेरित होकर इन्द्रादि देव ही प्रभ के समीप आकर स्तुति, वन्दन, पूजन, उपासना, वाणी-श्रवण इत्यादि यथायोग्य आराधना द्वारा प्रात्मश्रेय साधते हैं। नवग्रैवेयक के देव अपने स्थान में ही रह करके तथा अनुत्तरवासी देव अपनी शय्या में ही रह करके सद्धर्म के अनुराग से प्रभु की स्तुति आदि तीर्थंकर भगवन्तों को नमस्कार तथा उनकी पूजा-अर्चना करते हैं। वह लोकानुभाव कार्य है ॥ ४-२२ ।।
* वैमानिकनिकायेषु लेश्या * मूलसूत्रम्पीत-पद्म-शुक्ललेश्या द्वि-त्रि-शेषेषु ॥ ४-२३ ॥
* सुबोधिका टीका * अत्र लेश्यया द्रव्यलेश्यैव ग्राह्या। यत् भावलेश्याध्यवसायरूपा। अतस्ताः षट्सु वैमानिकदेवेषु एव प्राप्यन्ते । उपर्यु परि वैमानिकाः सौधर्मादिषु द्वयोस्त्रिषु