Book Title: Tattvarthadhigam Sutraam Tasyopari Subodhika Tika Tatha Hindi Vivechanamrut Part 03 04
Author(s): Vijaysushilsuri
Publisher: Sushil Sahitya Prakashan Samiti
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३।१३
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तृतीयोऽध्यायः
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मध्य में उत्तर-दक्षिण विस्तार वाले तथा बाण के समान सीधे दो पर्वत हैं। उसी से दो विभागों की कल्पना होती है। उन दो विभागों में पूर्व और पश्चिम दिशा के विस्तार वाले छह-छह वर्षधर पर्वत एवं सात-सात वर्षक्षेत्र हैं। उनके मध्य में एक-एक मेरुपर्वत है। इस पर्वत का अन्दर का भाग लवणसमुद्र तथा बाहर का भाग कालोदधि समुद्र से स्पशित रहता है। छह-छह वर्षधर पर्वत शकट-गाड़ी के पहियों में लगे हुए प्रारों के सरीखे-समान हैं। तथा मध्य भाग में भरतादिक सात क्षेत्र हैं।
इस सूत्र का सारांश यह है कि जम्बूद्वीप में जिन-जिन नाम वाले क्षेत्र और पर्वत पाये हैं, उन-उन नाम वाले क्षेत्र तथा पर्वत धातकीखण्ड में भी पाये हुए हैं। परन्तु प्रत्येक क्षेत्र तथा प्रत्येक पर्वत दो-दो हैं। जैसे-दो भरत, दो हैमवत, दो हरिवर्ष, दो महाविदेह, दो रम्यक, दो हैरण्यवत, दो ऐरावत, इस तरह दो-दो क्षेत्र हैं। इसी तरह पर्वत भी दो-दो हैं। इस प्रकार धातकीखण्ड द्वीप में क्षेत्रों तथा पर्वतों की संख्या कही है ।। (३-१२)
卐 मूलसूत्रम्
पुष्करार्धे च ॥ ३-१३ ॥
* सुबोधिका टीका * यः धातकीखण्डे मन्दरादीनां सेष्वाकारपर्वतानां संख्याविषयनियमः सः पुष्करार्द्धऽपि वेदितव्यः । पुष्करार्धेऽपि इष्वाकारपर्वतौ। यौ च दक्षिणोत्तरे आयतौ कालोदधि-पुष्करावरसमुद्रजलस्पर्शीपञ्चशतयोजनोत्तु गौ। अनेनैव पुष्करार्धस्यापि पूर्वपुष्करार्ध-पश्चिमपुष्करार्धति द्वौ विभागौ ।
ततः परं मानुषोत्तरो नाम पर्वतः मानुषलोकपरिक्षेपी सुनगरप्राकारवृत्तः पुष्करवर, द्वीपार्धविनिविष्टः स्वर्णमयः सप्तदशैकविंशतियोजनशतानि उच्छि तः चत्त्वारित्रिंशानि क्रोशं चाधो धरणीतलमवगाढो योजनसहस्र द्वाविंशमधस्तात् विस्तृतः सप्तशतानि त्रयोविंशानि मध्ये चत्वारि चतुर्विशानि उपरीति ।
एष पर्वतः मानुषोत्तरेति नाम्ना किमर्थं व्यवहृतः ? मानुषोत्तरपर्वतात् परे कोऽपि अद्यप्रभृति नैवोत्पन्नः जातः । न च भविष्यतीति संहरणापेक्षयाऽपि मानुषोत्तरे परे न कोऽपि मनुष्यः लभ्यते । चारणविद्याधराश्च ऋद्धिप्राप्ताः अपि मनुष्याः संहरणहीनाः । अर्थात् समुद्घातोपपातातिरिक्तः मानुषोत्तरपरं मनुष्यजन्मासम्भवः । अत एव च मानुषोत्तर इत्युच्यते । हरणं कृत्वा नीयते यत् संहरणम् । संहरणमपि श्रमणी, वेदरहितः, परिहारविशुद्धिसंयमितः, पुलाकः, अप्रमत्तः, चतुर्दशपूर्वधारकः,