Book Title: Tattvarthadhigam Sutraam Tasyopari Subodhika Tika Tatha Hindi Vivechanamrut Part 03 04
Author(s): Vijaysushilsuri
Publisher: Sushil Sahitya Prakashan Samiti
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४।१२ ] चतुर्थोऽध्यायः
[ २५ (४) उक्त आठ प्रकार के व्यन्तरों में से चौथे प्रकार के गन्धर्व जाति के व्यन्तरदेव शुद्ध स्वच्छ लालवर्ण के तथा गम्भीर-घन शरीर को धारण करने वाले होते हैं। उनका स्वरूप देखने में प्रिय होता है। ये सुन्दर रूप तथा सुन्दर वदन के प्राकार एवं मनोज्ञ स्वर के धारक होते हैं। अपने मस्तक पर मुकुट को रखने वाले तथा गले में हार से सुशोभित रहा करते हैं। इनका चिह्न तुम्बरु वृक्ष को ध्वजा है।
(५) उक्त पाठ प्रकार के व्यन्तरों में से पाँचवें प्रकार के यक्ष जाति के व्यन्तरदेव निर्मल श्यामवर्ण के होते हुए भी गम्भीर तथा तुन्दिल हुआ करते हैं। मनोज्ञ और देखने में प्रिय होते हैं, तथा मान और उन्मान के प्रमाण से भी युक्त होते हैं। हाथ और पाँव के तल भाग में तथा नख, तालु, जिह्वा और प्रोष्ठ के प्रदेश में लालवर्ण के हुअा करते हैं। देदीप्यमान मुकुटों को धारण करने वाले और अनेक प्रकार के रत्न या रत्नजड़ित आभूषणों से भूषित रहते हैं। इनका चिह्न वटवृक्ष की ध्वजा है।
६) उक्त आठ प्रकार के व्यन्तरों में से छठे प्रकार के राक्षस जाति के व्यन्तरदेव शुद्ध निर्मल वर्ण के धारक, भीम तथा देखने में भयंकर होते हैं। मस्तक के भाग में अत्यन्त कराल एवं लालवर्ण के लम्बे होठों से युक्त होते हैं। तपाये हुए सुवर्ण के आभूषणों से भूषित तथा अनेक प्रकार के विलेपनों से युक्त होते हैं। इनका चिह्न खट्वाङ्ग को ध्वजा है।
(७) उक्त आठ प्रकार के व्यन्तरों में से सातवें प्रकार के भूत जाति के व्यन्तरदेव श्यामवर्ण होते हुए भी सुन्दर रूप को धारण करने वाले, सौम्य स्वभाव वाले, तथा अतिस्थूल अनेक प्रकार के विलेपनों से युक्त कालरूप हुआ करते हैं। इनका चिह्न सुलस ध्वजा है।
) उक्त पाठ प्रकार के व्यन्तरों में से आठवें प्रकार के पिशाच जाति के व्यन्तरदेव हैं। ये सुन्दर रूप के धारक, देखने में सौम्य तथा हाथ और ग्रीवा में मणियों एवं रत्नजड़ित भूषणों से सुशोभित रहते हैं। इनका चिह्न कदम्ब वृक्ष की ध्वजा है।
सारांश-व्यन्तरनिकाय के पाठ प्रकार के व्यन्तरदेव पर्वत, गूफा और वन इत्यादि के विविध प्रांतरे में रहने से या भवनपति तथा ज्योतिष्क इन दो निकायों के प्रांतरे में रहने से व्यन्तर कहे जाते हैं। ये व्यन्तरदेव प्रथम रत्नप्रभा पृथ्वी के ऊपर के एक हजार योजन में से ऊपर तथा नीचे सौ सौ योजन छोड़कर मध्य के पाठ सौ योजन प्रमाण भाग में ही उत्पन्न होते हैं। किन्तु उनके निवास ऊर्ध्व, अधो और मध्य इन तीनों लोकों में होते हैं। वे किन्नरादि व्यन्तर भवनों में, नगरों में और आवासों में रहते हैं। ये व्यन्तरदेव चक्रवर्ती इत्यादि पूण्यशाली मनुष्यों की भी सेवक की माफिक सेवा करते हैं।
विशेष-व्यन्तरनिकाय के व्यन्तरदेवों में किन्नर प्रादि पाठ जाति के देवों बिना वारणव्यन्तर जाति के देव भी हैं। रत्नप्रभा पृथ्वी के ऊपर के भाग में सौ योजन में से ऊपर तथा नीचे दस-दस योजन छोड़कर शेष अस्सी (८०) योजन के भाग में वाणव्यन्तर देवों का जन्म होता है। ये देव प्रायः पर्वत की गुफा इत्यादि स्थलों में रहते हैं।