Book Title: Tattvarthadhigam Sutraam Tasyopari Subodhika Tika Tatha Hindi Vivechanamrut Part 03 04
Author(s): Vijaysushilsuri
Publisher: Sushil Sahitya Prakashan Samiti
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श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रे
[ ३।१६
में अव्यक्त नहीं हैं, इस प्रकार शब्दों का व्यवहार जिनमें पाया जाता है। ऐसे उक्त पाँच प्रकार के आर्य पुरुषों के बोलने की भाषा का जो व्यवहार करते हैं; उनको भाषार्य कहना चाहिए तथा उसी तरह समझना भी चाहिए।
* म्लेच्छ--क्षेत्र, जाति, कुल, कर्म, शिल्प तथा भाषा इनकी अपेक्षा दर्शन-ज्ञान-चारित्र के विषय में जिनका आचरण और शील शिष्ट लोकों के द्वारा सम्मत तथा न्याय और धर्म से अविरुद्ध रहा करता है, उनको आर्य कहा जाता है। इनसे विपरीत को 'म्लेच्छ' कहते हैं। अर्थात्-जिनका आचरण और शील इससे विपरीत है, तथा जिनकी भाषा और चेष्टा भी अव्यक्त एवं अनियत है, उसको म्लेच्छ समझना चाहिए। इनके अनेक भेद हैं। जैसे-शक, यवन, किरात, काम्बोज तथा बाल्हीक इत्यादि । इनके अलावा अन्तरद्वीपों में जो रहते हैं, वे म्लेच्छ ही हैं। क्योंकि उनके क्षेत्रादिक उपर्युक्त क्षेत्रादिकों से भिन्न हैं। लवणसमुद्र के भीतर तीन सौ योजन से लेकर नौ सौ योजन तक चलकर सात अन्तरद्वीप हैं, जो हिमवान् पर्वत की पूर्व तथा पश्चिम की चारों विदिशाओं के मिलाकर अदाईस होते हैं।
जिस तरह हिमवान् पर्वत सम्बन्धी अट्ठाईस अन्तरद्वीप हैं, उसी तरह शिखरी पर्वत सम्बन्धी भी अट्ठाईस अन्तरद्वीप हैं। कुल मिलाकर छप्पन अन्तरद्वीप होते हैं। इन समस्त द्वीपों में रहने वाले मनुष्य अन्तर्वीपज म्लेच्छ ही कहे जाते हैं। कर्मभूमि में यवन, शक, भील इत्यादि जाति के मनुष्य तथा अ-कर्मभूमि के सभी मनुष्य म्लेच्छ हैं । (३-१५)
* कर्मभूमेः निर्देशः * 卐 मूलसूत्रम्भरतरावतविदेहाः कर्मभूमयोऽन्यत्रदेवकुरुत्तरकुरुभ्यः ॥ ३-१६ ॥
* सुबोधिका टीका * भरतैरावतविदेहाः पञ्चदशकर्मभूमयो मनुष्यक्षेत्रे भवन्ति । अन्यत्र देवकुरूत्तरकुरुभ्यः । पञ्चमेर्वधिष्ठितपञ्चचत्त्वारिंशत्लक्षयोजनविस्तृतमनुष्यक्षेत्रे पञ्चभरतैरावत विदेहक्षेत्राणि, यानि च मिलित्वा पञ्चदशसङ्ख्यकानि भवन्ति । अन्यानि क्षेत्राणि, 'अ-कर्मभूमयः' इति व्याख्याताः ।
संसारदुर्गान्तगमकस्य सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रात्मकस्य मोक्षमार्गस्य ज्ञातारः कर्तारः उपदेष्टारश्च भगवन्तः परमर्षयस्तीर्थकराः उत्पद्यन्तेऽत्र । अत्रैव सिद्धाः जायन्ते, नान्यत्र । अतो मोक्षाय कर्मणः सिद्धिभूमयः कर्मभूमयश्चेति । शेषासु विशतिवंशाः सान्तरद्वीपाः अकर्मकभूमयो भवन्ति । देवकुरूत्तरकुरवस्तु कर्मभूम्यभ्यन्तरा अपि अकर्मभूमय इति। अन्यच्च नारकादिचतुर्गतिमयसंसारः दुर्गमगहनश्च । यत्र