Book Title: Tattvarthadhigam Sutraam Tasyopari Subodhika Tika Tatha Hindi Vivechanamrut Part 03 04
Author(s): Vijaysushilsuri
Publisher: Sushil Sahitya Prakashan Samiti
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१४ ] श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रे
[ YE प्रानतप्राणतारणाच्युतकल्पवासिनो देवाः प्रवीचाराय उत्पन्नस्थाः देवी: मनसि संकल्पयन्ति । संकल्पमात्रेणैव च ते परां प्रीतिमुपलभन्ते विनिवृत्तास्थाश्च भवन्ति । एभिश्च प्रवीचारैः परतः परतः प्रीतिप्रकर्षविशेषोऽनुपमगुणो भवति, प्रवीचारिणामल्पसङ्कले शत्वात् । अत्रोच्यते मात्रस्पर्शेन दर्शनेन वा शब्दापनेन मनसि संकल्पमात्रेण यत् प्रवीचारसुखं भवति । तेषु चोत्तरोत्तरसुखं न्यूनतरं भवति ।
वस्तुतः प्रवीचारसुखं नैव सुखम्, प्रवीचारसुखं तु वेदना। सा यत्र-यत्र यादृशः प्रमाणेन न्यूना भवेत् सुखस्य प्रमाणं तत्र-तत्राधिकप्रमाणेन भवति । ये च कल्पातीता ते अप्रवीचाराः, अतः मानसिकप्रवीचारीणां अपेक्षया सुखिनः सन्ति ।। ४-६ ।।
* सूत्रार्थ-वैमानिकों में सौधर्म और ईशान देवों को छोड़कर शेष देवों में दो-दो कल्पवासी देव अनुक्रम से स्पर्श, रूप, शब्द और मन के द्वारा मैथुन सेवन करते हैं । हैं ॥ ४-६ ।।
विवेचनामृत जैसे भवनपति, व्यन्तर, ज्योतिष्क, पहले सौधर्म स्वर्ग और दूसरे ईशान स्वर्ग के वैमानिक देव, ये सभी मनुष्यों के समान काय-प्रवीचार करते हैं अर्थात् सर्वाङ्ग शरीर द्वारा मैथुन विषयों का उपभोग-संभोग करते हुए प्रसन्नता को प्राप्त होते हैं; वैसे तीसरे स्वर्ग से यावत् बारहवें स्वर्ग पर्यन्त के देव मनुष्यों के समान सर्वाङ्ग देह-शरीर स्पर्श द्वारा काम-सुख भोगने वाले नहीं होते हैं। वे अन्य रूप से विषयसुख का अनुभव करते हैं। जैसे
* तीसरे सनत्कुमार और चौथे माहेन्द्र स्वर्ग के देव जब मैथुन संज्ञा उत्पन्न होती है, तब वे देवियों के स्पर्श मात्र से ही मैथुन सेवन करते हैं अर्थात् -कामवासना से तृप्त होकर प्रसन्नचित्त हो जाते हैं।
* पाँचवें ब्रह्मलोक और छठे लान्तक स्वर्ग के देव जब विषय-वासना उत्पन्न होती है, तब वे उन देवियों के ऐसे मनोहर और सुन्दर शृङ्गार तथा वेषभूषा से सुसज्जित रूप को देखकर ही विषयजनित सुख से सन्तुष्ट हो जाते हैं ।
* सातवें महाशुक्र तथा आठवें सहस्रार स्वर्ग के देव, जब उन्हें प्रवीचार की आकाङ्क्षा उत्पन्न होती है तब वे देवियों के मुखारविन्द से मनोहर विलासजनित मधुर संगीत, मृदू हास्य तथा अलंकारों की ध्वनि इत्यादिक के श्रवणमात्र से प्रीति को प्राप्त हो जाते हैं तथा उनकी यह अभिलाषा भी उसी से निवृत्त हो जाती है।
* नौवें आनत, दसवें प्राणत, ग्यारहवें पारण तथा बारहवें अच्यत इन चार देवलोकों के देव जिस समय प्रवीचार (मैथुन-सेवन) का विचार करते हैं और देवियों का संकल्प करते हैं, उसी