Book Title: Tattvarthadhigam Sutraam Tasyopari Subodhika Tika Tatha Hindi Vivechanamrut Part 03 04
Author(s): Vijaysushilsuri
Publisher: Sushil Sahitya Prakashan Samiti
View full book text
________________
३४ ] श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रे
[ ३६ भद्रशाल, नन्दन, सौमनस और पाण्डुक इन चार वनों द्वारा यह चारों तरफ से घेरा हुआ है। तीन काण्डकों में से नीचे का पहला काण्डक एक हजार योजन ऊँचा है, जिसका पृथ्वी के भीतर अदृश्य भाग है। इस काण्डक में प्रायः शुद्ध मिट्टी, पत्थर, हीरा और शर्करा ही पाये जाते हैं।
दूसरे और तीसरे काण्डक तो पृथ्वी के ऊपर के दृश्य भाग में ही हैं। इसमें दूसरा काण्डक पृथ्वीतल से लेकर ६३००० हजार योजन की ऊँचाई तक है। इस दूसरे काण्डक में प्रायः करके चांदी-रूपा, सोना, अङ्क-रत्नविशेष तथा स्फटिक रत्न ही पाये जाते हैं। दूसरे काण्डक के ऊपर ३६००० योजन की ऊँचाई वाला तीसरा काण्डक-काण्ड है। इस काण्डक में प्रायः सुवर्ण-सोना ही है।
चूला
इसका दूसरा नाम है चूलिका-शिखर। इस मेरुपर्वत के ऊपर एक चूला यानी चूलिकाशिखर है। वह चालीस योजन ऊँची है। इसकी चौड़ाई मूल में बारह योजन, मध्य में पाठ योजन तथा अन्त में चार योजन है। चूलिका भाग में प्राय: करके वैडूर्यमणि ही पाई जाती है।
चार वन
(१) मेरुपर्वत के मूल में समभूतला पृथ्वी पर पहला भद्रशालवन है। यह गोल है और चारों तरफ से मेरुपर्वत को घेरे हुए है ।
(२) भद्रशालवन से ५०० योजन ऊपर चलकर उतनी ही प्रतिक्रान्ति के विस्तार से युक्त दूसरा नग्दनवन है।
(३) नन्दनवन से ६२५०० योजन ऊपर चलकर तीसरा सौमनसवन पाता है। इसकी चौड़ाई ५०० योजन की है।
(४) सौमनसवन से ३६००० योजन ऊपर चलकर चौथा पाण्डुकवन आता है। इसकी चौड़ाई ४६४ योजन की है। इसमें चार दिशाओं में चार शिलाएँ आदि हैं। इन शिलानों पर रहे हुए सिंहासनों पर श्रीजिनेश्वर-तीर्थंकर भगवन्तों के जन्माभिषेक होते हैं।
विशेष यह है कि मेरुपर्वत का विष्कम्भ सर्वस्थल में एक समान नहीं है, किन्तु उसके विष्कम्भ के प्रदेश क्रम से घटते गये हैं। इस हानि का प्रमाण इस प्रकार है कि नन्दनवन और सौमनसवन से लेकर ग्यारह ग्यारह हजार प्रदेशों के ऊपर चलकर विष्कम्भ के एक-एक हजार प्रदेश घटते गये हैं।
इस तरह जम्बूद्वीप का विस्तार तथा प्राकार इत्यादि कहा। इसमें एक विशेष बात और भी है। इस जम्बूद्वीप के सात भाग हैं, जिनको सात क्षेत्र कहते हैं। वे सात क्षेत्र कौनसे-कौनसे हैं ? सो कहने के लिए अब आगे के सूत्र कहते हैं ।। (३-६) ॥