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सारणतरण
श्रावकाचार
॥२३॥
जाता है । संसारमाधर्माचरण है-
त
एकेन्द्रियादि
इस मिथ्यादर्शनकी संगतिमें जितना भी ज्ञान होता है वह सब ज्ञान भी मिथ्याज्ञान कहा जाता है। यदि कोई ग्यारा अंग नौ पूर्वका पाठी बड़ा भारी जैन शास्त्रका ज्ञाता भी हो परंतु अंतरंगमें मिथ्यादर्शन हो, भोगोंकी तरफ आस्था हो, वीतरागता पूर्व शुद्ध-आत्मीक भावकी रुचि न हो तो उसका सर्व ज्ञान वस्तुस्वभावको शास्त्रके आश्रयसे (अनुभवसे नहीं) ठीक बताने पर भी उसके लिये मिथ्याज्ञान ही होरहा है। जैसे दूध लाभकारी मीठा होता है परंतु यदि कड़वी तुंधी में रख दिया जाय तो अहितकारी होजाता है उसी तरह वह ज्ञान मिथ्यात्वकी संगतिमें मिथ्याज्ञान ही कहा जाता है। संसार वर्द्धक विषयभोगोंकी अंतरंग तृष्णावश आत्मज्ञान व वैराग्य शून्य जो कुछ भी साधु व गृहस्थका धर्माचरण है-तप, जप, व्रत है वह सब मिथ्या चारित्र है। ये ही तीन घोर पाप कर्मके बंधके कारण हैं। उनहीसे जीव एकेन्द्रियादिमें जन्म लेकर अज्ञानतममें बेखबर सोया पड़ा रहता है। चारों गतियों में भ्रमण करानेके ये ही तीन मूल बीज हैं। जन्म, मरण, रोग, शोक, वियोग आदि दुःखों के ये ही कारण हैं। सच है जिसके साथ प्रीति होगी उसीका संसर्ग रहेगा। संसारकी प्रीति ससार वर्धक है । संसारसे वैराग्य संसार नाशक है। समाधिशतकमें पूज्यपादस्वामी कहते हैं
देहान्तरगतेबान देहेऽस्मिन्नात्मभावना । बीनं विदेहनिष्पत्तरात्मन्येवात्मभावना ॥ ७ ॥ भावार्थ-इस शरीरमें आत्माकी भावना ही वारवार शरीर पानेका बीज है। जब कि आत्मामें ही आत्माकी भावना देह रहित होनेका बीज है। संसारके कारण ये ही तीन हैं। स्वामी समंतभद्राचार्यने रत्नकरंडश्रावकाचारमें कहा है
सदृष्टिज्ञानवृत्तानि धर्म धर्मेश्वरा विदुः, यदीय प्रत्यनीकानि भवन्ति भवपद्धतिः ॥ ३ ॥ भावार्थ-सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्रको धर्मके स्वामियोंने धर्म कहा है। इनके विपरीत मिथ्या दर्शन, मिथ्या ज्ञान व मिथ्याचारित्र संसारकी परिपाटी बढ़ानेवाले हैं ।