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कारणतरण
श्लोक-अनृतं विनाशी चित्ते, असत्ये उत्साहं कृतं ।
__अज्ञानी मिथ्या सहियं, शुद्धबुद्धं न चिंतए ॥ २० ॥ अन्वयार्थ-(अनृतं ) मिथ्या वचन या मिथ्ण उपदेश (चित्ते) चित्तमें भरा हुआ (विनाशी) आत्माका घात करने वाला है। इससे ( असत्ये) मिथ्या मार्गमें (उत्साहं कृतं) उत्साह होजाता है। (मिथ्या सहियं) मिथ्या धर्मको रखन वाला (अज्ञानी) ज्ञान शून्य प्राणी (शुद्धबुद्ध) शुद्ध बुद्ध परमाy स्माको (न चिंतए) नहीं चिन्तन करता है।
विशेषार्थ-मिथ्यादेवके आश्रयसे व मिथ्या गुरुके द्वारा जो मिथ्यात्वका उपदेश मनमें भर जाता है वह उपदेश आत्माक भावों को एसा विपरीत बना देता है जिससे उसका संसार बढ़ता जाता है, वह आत्मज्ञानको न पाता हुआ आत्माकोरागद्वेष मोहमें फंसाए रखता है जिससे आत्माका बहुत बुरा होता है। यह भवभवमें भटककर जन्म जरा मरणकी घोर वेदनाएं सहन करता है। जो उपदेश यथार्थ आत्माको बताकर रागद्वेष मोह छुड़ानेवाला व आत्माके शुद्ध स्वभावकी तरफ ले जानेवाला हो तथा अहिंसाकी तरफ प्रेरक हो वह तो सत्त्य है, इसके विरुद्ध जो कुछ उपदेश है वह असत्य है। वस्तु कथंचित् नित्य कथंचित् अनित्य, कथंचित् अभेद कपंचित् भेद इत्यादि अनेक रूप है। वस्तु सदा स्वभावको न त्यागनेकी अपेक्षा नित्य है। सदा परिणमनशील होनेकी अपेक्षा अनित्य है। दोनों ही स्वभाव वस्तुमें हैं। वस्तु अपने गुण व पर्यायोंका अखण्ड पिंड है इससे अभेद है। गुणोंकी व पर्यायांकी भिन्नताकी अपेक्षा भेद रूप है । इस तरह यथार्थ वस्तुको बतानेवाला उपदेश सत्य है। इसके सिवाय एक ही पक्षका आग्रह करनेवाला उपदेश असत्य है। मिथ्यात्व पांच तरइका है इन पांचों तरहके मिथ्यात्वका पोषक सर्व उपदेश व वचन असत्य है।।
(१) एकांत मिथ्यात्व-अनेक स्वभाव वस्तुमें होते हुए भी उसे एक स्वभाव रूप ही मान पैठना कि वस्तु नित्य ही ह अथवा अनित्य ही है इत्यादि।
(२) विपरीत मिथ्यात्व-वस्तुका स्वरूप उल्टा मान लेना जैसे-हिंसा करनेमें, पशुबलिमें, विषय कषाय पोखने में जो अधर्म है उसमें धर्म मान लेना।