Book Title: Tarangvaikaha
Author(s): Padliptsuri, Nemichandrasuri,
Publisher: Jivanbhai Chotabhai Zaveri
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सं० तरंगवईकहा ॥ ६ ॥
नयणाई । सवणा उण उत्तमंति तुम्हें उत्पत्तिभवणंमि ॥ ७१ ॥ किं नामस्स य पिउणो अमयमयवुद्धिसणिट्ठा (हा) तंसि । कोत्युहमणीव हरिणो हिययं आनंदियं कुणसि ।। ७२ ।। भुवणस्स वंदणीया पेहायसं सव्वविमलओण्हाए । जगणी जणणी काणिउ नामंमि य अक्खराणेच्छा || ७३ ॥ किंच सुहं अणुभूयं निययघरे पहघरे तुमे अजा ! | केण व दुक्खेण इमा गहिया अइदुकराजा ||७४ || इच्छामि जाणिउं जे एयं सव्वं अहाणुपुन्नीए । दोसो य नो कायच्यो गम्मते अगमणंमि ॥ ७५ ॥ महिलारयणस्स नईण साहूणो सव्वस्स को (नो) किर लहिउ जुत्तो पभवति सुइ (ई) चरइ भो (लो) ए १ || ७६ ॥ एवं पि जाणमाणा धम्मियजणपरिभवो न जुत्तोति । तुह रूवविम्हियमणा पुच्छामि तुमं अह रसेणा ॥७७॥ तो भणइ एवं भणिया दुक्खं किर साहिउं इमं घरिणि । एस अणत्थादंडो न जुञ्जए सेविउं 'अम्हे ॥ ७८ ॥ पुत्रकयपुञ्चकीलीयसुहाणि गिहवाससमणुरूवा (भूआ ) णि । सावजाणि न जुत्तं मसावि किणो उदिरेउं || ७९ || अह पुरा संसारदुगंच्छणं ति अहरिसेण उ समज्झत्था । तं सुबह कहे हं (मि) मे कम्मवित्रागफलं निययं ॥ ८० ॥ एव भणियंमि तुड्डा घरिणी ताओ य पररविलयाओ । सोपव्वउत्थियाओ अजं वंदेति सव्वाओ || ८१|| अह वाहिँ पुच्छिया सा समणी साहेइ पुव्वभवजणियं । कम्मविवागं सव्वं तासि विलयाण सच्चासिं ॥ ८२ ॥ इड्डीगारवर हिया मज्झत्था तत्थिमं कुणइ (कहेड) अज्जा | धम्मेकदिणदिट्ठी सरस्मई देविपचक्खा ॥ ८३॥ जं च मए अणुभूयं जं च सुयं जं च संभरे घरिणि ।। घोरुन्वएण एयं सुण चण्ोहं समासेण ||८४|| जा भणइ मंगलं मंगुलंति लडं च भणइ लठ्ठेति । सव्वा वे भणते न दो इ (वि) निंदा पसा वा ॥ ८५॥ इह अत्थि भरहवासे मज्झिमखंडंमि मज्झदे संमि | 'वच्छा' नाम जणवओ रम्मो जे सव्वगुणकलिओ १ अ० मया । २ पवजा प्रव्रज्या । ३ अहं रसेण । ४ अ० अम्ह १५ अ० ई चेव प० ।
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पुव्वावस्था पुच्छा
१॥ ॥ ६ ॥
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