Book Title: Tarangvaikaha
Author(s): Padliptsuri, Nemichandrasuri, 
Publisher: Jivanbhai Chotabhai Zaveri

View full book text
Previous | Next

Page 52
________________ PUR सं० तरंग- बईकहा ॥२६॥ सारसियं ॥८५।। तत्थ मयाहं संती इममि कोसंबियनयरिब्धंगे। सब्वगुणसंपदे उवण्णा सिद्विगेहंसि ॥८६॥ एते य जलतरंगे || मरिऊण रहं रसेरिनामए सरयंगे। दट्टण उडिये मे वयंसि! उकंतओ तिव्यो ।॥८७॥ चक्कायजुयलपेच्छणपरिरत्तमणाए तत्थ सयराह । चक्कवाई तरंगवई सो मज्झ चक्कवाओ हियतलयं समोइण्णो ॥ ८८ ॥ संभरिया य वयंसी ! गुणरुइया चक्कवायजाई मे । सव्या जहाणुहूया जा ते जाया कहिया मए एसा ॥ ८९ ।। पियविप्पओगकलुणं सरियन्वयकारणं महं एयं । सव्वं जहाणुभूयं से कहियं समासेण ॥९०॥ मह | जीविएणं तं सावियासि मा कस्सई परिकहेजा। एयं तेण सहाहं जा ताव मिलेमि कंतेणं ॥९१।।जह मे होज कहं ची तेण सह समागमो इह लोए । तो नवरि माणुसे हं वयंसि! भोए अमिलसेजा।।१२।। अंमा पिया य विस्सासिया अहं सुरयसोक्खलोहिल्ली। सत्तवरिसाणि सुंदरि! ते(त)ल्लिच्छाहं पडिच्छामि ।।९३॥ अहवा विततं पक्खं वयंसि! हिययघरवाससंतिय मज्झं। जिणसत्थवाहपयंतो(ते) मोक्खपहं पवजामि ॥२४॥ तह य पुणो तह काहं जह हं पियविप्प प्रोगसंबंधं । संसारपाससुलहं पुणो वि दुक्खं न पावेमि ॥९५।। काहं समणत्तणयं अब्बावाहसुपब्धयारुहणं । जम्मणमरणाईणं वियरेणं सम्बदुक्खाणं ॥ ९६ ॥ एवं सिणेहवसअहिय पेम्मरत्ताए तत्थ मे परिणि ! । कहइत्तु चेडियाए वि भाविओ चेव मे सोगो ॥९७॥ सोऊण य सारसिया एव वच्छल्लसावसिउहियया। मे दुक्खसोगसंतप्पणेण रुइरा सुइरं पि ।।१८।। भणइ य म रोयंती हा जह से हियया सासन्धीधार (?)। पियविप्पओगमइयं दुक्खं सामिणि ! इमं विइयं ॥ ९९ ॥ एए पुन्धकयाणं कम्माणं निययपावरुक्खाणं । कालपरिणमे परकी(परि) हवंति कहया फल विवागा ॥ ४०० ॥ सामिणि ! मुयसु विसाया(य) इहपि ते देवप्पसाएणं । चिरपरिचिएण होही तेण सहसमा १ अ० नयरियः। exaeeeeeeeee Jain Education For Private & Personal Use Only ainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130