Book Title: Tarangvaikaha
Author(s): Padliptsuri, Nemichandrasuri,
Publisher: Jivanbhai Chotabhai Zaveri
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सं० तरंग
वईकहा ॥५२॥
कालजाईए बद्धो । तस्स परिपूरणत्थं चिरं पि इच्छामि णं दट्टु ॥१०॥ अच्छीहिं विचयाहं ताहे नियएहि वाहपुण्येहिं (ज) सो चिरस्स हिट्ठो दिरमविननिरंतरं दिवो ॥ ११॥ दिट्ठो त्ति पहट्ठाओ अच्छामो तत्थ एगपासंमि । तत्थाउलि(लोविलिमाओ अइगमणससंकिया अम्हो ॥१२॥ अहं पि भागधेजेहिं तेण विसजिया पियवयंसा। पेच्छह कोमुइचारं अहमवि गच्छं निवजामि ॥१३॥ तेसु गएसु तो भणइ चेडियं एहि वच्चिमो ताव । तं चक्कवायपट्टे सेट्ठीघरसमीवे xxx ॥१४॥ तत्थ भवणेगदेसे 'सेम्मेसिया घगत्तहिययाहं अच्छामि गणसे दासीसंगया तस्स ॥ १५(१)।। आभरणवसणसंतवणवावडा ते समागमुकंठा। कामेमि व देहबद्धं | पियं पकामं पलोएमि ॥१६॥ विणयरइयंजलिउड चावडियं पेच्छिऊण अह चेडियं । बहुमाणससंभंतो अह कंतो उढिओ सहसा | ॥१७।। जत्तो चेव य अच्छं लजाए विलिया पच्छणा(ग्णा)। तनो चेव य हुत्तो चेडीए समं समवसरिओ ॥१८॥ तो हरिसपूरियच्छो दुइं अंगुलिपुडे गहेऊणं । भणइ परितोसपीरा पहढवयणो इमं वयणं ॥ १९ ॥ जीवियतलायपाली मज्झ सोक्खणी सहयरी सा। हिययघरवासिणी मे अविहट्ठा सामिणी तुझं ॥२०॥ अहयं खु मयणसरपसरवाहियहियओ सुहं न विदेमि। तीए समागमकारणमणोरहेहिं हीरंतो ॥२१ ।। काऊणं ववदेसं निरंतरा दुइ ! पियवयंसा मे । विसजिया या(य) पेच्छह कोमुइयारं ति सवे वि ॥२२॥ पढविऊण य मित्ते अहं पिउकंठियं विणेउं जो(जा)। तुम्भे चेव य भवणं गंतुमणो पट्टयं ददृटुं ॥ २३ ॥ तं वसिमे इह दिट्ठा तुहिए णट्टो य मे हिययसोओ। भण दुइ! मे जं सि भणिया पियाए तं इच्छिमो सोउं ।। २४ ॥ अह भणइ चेडिया तं न किं चि अप्पाहिया अहं ताए। सयमेव विष्णवेहि सा इह आगया पातं ।।२५। अह भणइ पुगो चेडी वुढा सहेज
१ अ० पडिपू०।२ सम्मे। na
V
॥५२॥
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