Book Title: Tarangvaikaha
Author(s): Padliptsuri, Nemichandrasuri, 
Publisher: Jivanbhai Chotabhai Zaveri

View full book text
Previous | Next

Page 64
________________ IA सं० तरंग वईकहा ॥३८॥ पियासरणे रोयर्ण ॥७८॥ तेहि य पणदुचेट्टो उक्खित्तो लेप्पकम्मजक्खो व्व ! नेऊण एगपासे पवायदेसे य तो मुक्को॥७९॥ दट्टण चित्तपढें इमो हु पडिओत्ति जाणियच्छेहिं । अहमवि तत्थेव गया तस्स पडियकारणं गाउं । ८०॥ हिययं च मे पसणं सहसा परिओमधरियं तत्थ लाभसुभासुभा (१) संपत्तीए ॥८१(१)।। जह निमित्तं अवि नाम चक्कवाओ सो होज इमो त्ति । एवं चिंतेमि अमृ खु अणुग्गहिया तो गहवइबालिया होजा ॥८२।। सोगसमुद्दविगाढा अह केण वि पुन्चसुकयकम्मेण । गुणस्यणपट्टणमिणं पावेज बरं गयकरोरुं ॥८३।। एव य चिंतेमि अहं सो य समस्सासिओ वयंसेहिं । वाहपरिरुद्धकंठो कलुणपरुण्णो इमं भणइ ।। ८४ ॥ हा मज्झ य मयणसरदीविए रुहरकुंकुमसवण्णे ! । सुरयंपिए सहयरि! तं कत्थत्थसि ।।८२(१)। निद्धकसिणच्छि! गंगातरंगरंगिणी चकाई मज्झ पेमामंजूसे विहणंगाणुद्धरि नगुण पडाईए कहं सुयणु! मज्झं निच्चबहुमए हा मज्झ कए इह मया सि ।।८६(१)। सो एवं विलवमाणो सुहुहं तुमे विहूणो बराहा मि अणुयत्तण(ण) पत्तढे पेमगुणपडाइए कहं सुयणु! मज्झं निचं बहुमए ॥८७(१)। हा मज्झ कर इह मया सि सो एव विलवमागो अंसुकिलिण्णवयणो । विगयलज्जो दुक्खाहिं चत्तनिययमव्वंमसच्चे ।। ८८ ॥ गोहो कट्ट किं मुल्लो सि जंपमाणेहि तेहिं मित्तेहिं । मा एरिसाणि जए(भण) त्ति भणिय निनजिओ भणइ ॥८९|| तो मित्ता !न वि भुल्लो किं खु पभवसि त्ति जेहिं सो भणिओ। ते भणइ एह सुणह य(हिये) धरह रहस्सं इमं मज्झं ॥९०|| जं चक्कवयसिंगारपगरणं एत्थ पट्टए लिहियं । तं चकवायजाइगएण सम्बं मए पत्तं ॥९१॥ कह ते एयं पत्तं ति पुच्छिओ तेहिं पियवयंसेहि। | जाईसरो त्ति विम्हियमुहेहि समुहनिविट्ठहिडेहिं ॥९२(१) | जं ते मह कहियं तं सो अणुभूयमप्पणो तेसिं । साहीयं रोयमाणो ते १ अ० पडिरुद्धः । २ अ० अंसु० । ३ अ० घरसयमघम । zeera ॥ ३८ ॥ Jain Education Hewalonal For Private & Personal Use Only MaMjainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130