Book Title: Tarangvaikaha
Author(s): Padliptsuri, Nemichandrasuri, 
Publisher: Jivanbhai Chotabhai Zaveri

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Page 75
________________ विलंबे सं० तरंग-1 बईकहा ॥४९॥ खेओ | अहं अंगाणि तरंगवती न धारमि तुहं अलंभेणा ॥ ६१ ॥ सर्वच जहा नायं कुसलपविनि नियइतागं । पंकयविसालदलसुंदरच्छि! इय विण्णवेमि पुण ॥ ६२ ॥ तुह पुव्वसुरयवइयरपीवरयरयाणुरागजणिएण । मयणेग फुसुकुमालकमलयायगहडज्झं ।। ६३ ।। अण्णाणतिमिरपडिपूरिए जगे विविहजोणिगहणंमि । परलोयविप्पणटो इह एकमेकेग जा ताः ॥ ६४ ॥ मित्तबंधव(ब)लेण विपुलेण पुणरवि य सेट्ठी। तुज्झ करण चित्तासिणि सव्वत्यामेण रंजेमि ॥६५॥ ता ताव तरुण पसयच्छि! अत्थ कालंतरं इमं किंचि । संपीइसुय(हा)णुगयं गुरुपमायं पडिच्छंती ॥६६॥ इय परिणि ! लेहपरमत्थवित्थर ततो हंगहेऊग । मज्झत्थो त्ति विसण्णा निसन्न(ना) चेव अच्छामि ।। ६७ ॥ उनिरंतरकोप्परकरयलपल्हत्थनिमियमुहवंदा। निफदच्छो अच्छामि किं चि ज्झाणे निविद्वा ।। ६८ ॥ तो भणइ विणय विरइयकरयलकमलकयमत्थयामेला । विण ओवयारसुंदरविमारया चेडिया सा में ॥६९॥ नणु ते चिरपरिचिंतियमणोरहापूरओ इमो तेण । जीवियसंचकारो सुंदरि! परितोयसकारो ।।७० ॥ लेहो पीइसमागमसुरयपसरसारो य निच्छओ दिण्णो । पियवयणामयमल्लो पडिमल्लो सोइयबस्स ॥७१।। तं मा होह विसण्णा आपणो य पियं. | गुसविण्णो । सुरयागमोटेवओ इट्ठजणसमागमो भीरू ।।७२।। अह गुणा एव भणंति भणामि तं चेडियं अहं परिणि । सुग जेण कारणेणं जायामि सही विसण्णमणा ।।७३।। चितेण इमं मण्णे सो सिढिलसिणेहजणो जाओ। ज मे समागमपउयणमि कालेइते ॥७४(१)। भणइ चेडिया पुणो वि विणयरइयंजली घरिणि । सुण सामिणि ! विष्णत्तिं उत्तमपुरिसे हैं]सु जं होइ ॥७५॥ "कुलववदोसो नाणदया य मुयणजेण सण्णिकारसो य । अणएण वारयंता पुरिसा लाएदु सिझंति ॥७३॥ अणुवाएण दुहंतो घेणु खीरं नरो न साहइ । जह तह अणं पि जए अणुवारण न साहेति ॥७७ ।। असमिक्खिय तुरियं कयाकजा अणुवायतो य आरद्धा । 10 eTACelerape scienc ॥४९॥ Jain Education A nal For Private & Personal Use Only jainelibrary.org

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