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जेनावडे जे वस्तु जणाय ते प्रमाण. ते प्रमाण द्रव्यादि चार प्रकारे छे. आ अध्ययन भावरूप होवाथी भाव प्रमाणमां समवतरे छे. भाव प्रमाण गुण, नय अने संख्याना भेदथी त्रण प्रकारनुं छे. तेमां आ अध्ययननो गुणप्रमाण अने संख्याप्रमाणमां ज समवतार थाय छे; वर्त्तमानमां तो नयप्रमाणमां अवतार करातो नथी. यदाह
मूढनइयं सुयं, कालियं तु न नया समोयरंति इहं । अपुहुत्ते समोयारो, नत्थि पुहुत्ते समोयारो ॥१४॥
मूढ छे नैगमादि सात नयो जेमां एवा कालिकश्रुतमां नयो समवतार पामता नथी. ज्यां सुधी चारे अनुयोगो एकीभाव-भेला हता त्यां सुधी नयोनो समवतार थतो हतो, पण ज्यारथी पृथक्भाव थयो- अनुयोगो जुदा जुदा थया त्यारथी अनुयोगमां नयोनो समवतार थतो नथी. गुणप्रमाण वे प्रकारे छे: १ जीवगुणप्रमाण अने २ अजविगुणप्रमाण. तेमां आ अध्ययननो जीवनो उपयोगरूप होवाथी जीवगुणप्रमाणमां अवतार थाय छे. तेमां पण ज्ञान, दर्शन अने चारित्रना भेदथी त्रण प्रमाण छते आनो ज्ञान प्रमाणमां अवतार थाय छे. ज्ञानप्रमाणमां पण प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान अने आगमप्रमाणरूप ज्ञान प्रमाण छे. ते प्रस्तुत अध्ययन आप्तपुरुषना उपदेशरूप होवाथी तेनो आगम प्रमाणमां अवतार थाय छे. आगमप्रमाणमां पण लौकिक
१. आर्य वैर (बज्ज्रस्वामि) पर्यंत कालिकतनो अनुयोग जुदो न हतो त्यारे नयोनो समवतार श्रतो हतो, त्यारबाद आर्यरक्षितसूरिवडे कालिकत अने दृष्टिवादमां अनुयोग जुदा थया. पहेलां एक अनुयोगमां चारे अनुयोगनी व्याख्या थती हती, पछो उपयोगथी भावभावने जाणी आर्यरक्षितसूरिजीए अनुयोग जुदा जुदा कर्या. एनुं विशेष वर्णन आवश्यक टीकादिथी जाणवु.
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