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श्रीमद्भागवत की स्तुतियों का समीक्षात्मक अध्ययन विषान्महाग्नेः पुरुषादर्शनादसत्सभायाः वनवासकृच्छतः ।
मृधे-मधेऽनेकमहारथास्रतो द्रोण्यनचास्म हरेभिरक्षिता ॥'
कुन्ती नमस्कार से स्तुति प्रारम्भ करती है और नमस्कार से ही स्तुति का अन्त करती है। इस स्तुति में भगवान् श्रीकृष्ण के विभिन्न गुणों की चर्चा है । भगवान् सगुण भी हैं-निर्गुण भी। अपने सगे सम्बन्धी भाई, चाचा और भतीजा भी हैं और परात्पर ब्रह्म भी। उनका दर्शन ही भवबंधन से मुक्ति दिला सकता है, इसीलिए कुन्ती केवल विपत्तियो की ही कामना करती है क्योंकि विपत्ति में प्रभु के दर्शन होते हैं । पितामह भीष्मकृत श्रीकृष्ण स्तुति
भक्तराज भीष्म के कल्याणार्थ भगवान् श्रीकृष्ण उनकी बाणशय्या के ‘पास पधारते हैं । पितामह की यही इच्छा थी कि अन्त समय में परम प्रभु का दर्शन प्राप्त हो जाए। आज पितामह की महाप्रयाणिकवेला में सारे स्वजन श्रीकृष्ण भगवान् के साथ उपस्थित होते हैं। अपने सामने परम प्रभु को प्रत्यक्ष पाकर पितामह धन्य हो गए, जन्मजन्मान्तर की उनकी साधना आज सफल हो गयी। अपने मन, बुद्धि तथा इन्द्रिय को प्रभु में स्थापित कर स्वयं भी उन्हीं में स्थापित हो जाते हैं.."समधिगतोऽस्मि विधूत भेदमोहः ।"२
पितामह भीष्म भगवान् श्रीकृष्ण की स्तुति निष्काम भावना से ओत-प्रोत होकर करते हैं। आज पितामह को केवल विजयसखा की चरणरति की ही आवश्यकता है। महाराज ! मैंने धर्म किया, यज्ञ किया, ब्रह्मचर्य का पालन किया, पिता की आज्ञा शिरोधार्य की और इन सब साधनों द्वारा बुद्धि को वितृष्ण बनाया। अब मैं अपनी बुद्धि आपके चरणों में समर्पित करता हूं। आप जब प्रकृति में बिहार करते हैं तब यह सृष्टि चलती है। आपका शरीर कितना सुन्दर है--
त्रिभुवनकमनं तमालवर्ग रविकरगौरवाम्बरं दधाने ।
बपुरलककुलावृत ननाजं विजसखेरतिरस्तु मेऽनवद्या ॥
युद्धकालीन छबि की याद आ रही है । पितामह कहते हैं-मुझे युद्ध के समय की उनकी वह विलक्षण छबि याद आती है । उनके मुख पर लहराते हुए घुघराले बाल घोड़ों की टाप के धूल से मटमैले हो गये थे और पसीने के छोटे-छोटे स्वेद-कणों से युक्त मुख शोभायमान हो रहा था। मैं अपने तीखे बाणों से उनकी त्वचा को बींध रहा था। उन सुन्दर कवचमण्डित १. श्रीमद्भागवत १.८.२३ २. तत्रैव १.९.४२ ३. तत्रैव १.९.३२ ४. तत्रैव १.९.३३
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