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श्रीमद्भागवत की स्तुतियों का समीक्षात्मक अध्ययन प्रवणता एवं प्रेषणीयता की वृद्धि इत्यादि । अलंकार नियोजन
काव्य के लिये अलंकार आवश्यक तत्त्व माना गया है। जैसे विधवा स्त्री श्रीहीन हो जाती है उसी प्रकार अलंकार के बिना काव्य का कोई महत्त्व नहीं रहता। श्रीमद्भागवत की स्तुतियों में सभी प्रमुख अलंकारों का प्रयोग किया गया है । इस प्रसंग का विवेचन अगले अध्याय में किया जाएगा। चमत्कारजन्य आह्लादकता
पण्डितराज जगन्नाथ ने लोकोत्तर आह्लादजनक शब्द को ही काव्य कहा है।' उत्कृष्ट काव्य के लिए चमत्कारजन्यता या आह्लादकता का होना अत्यावश्यक है। श्रीमद्भागत की स्तुतियों का एक-एक श्लोक अलौकिक चमत्कार को उत्पन्न कर आत्मानन्द जनन में समर्थ है । स्तुतियों के अध्ययन से चित्तवृत्ति का विस्तार होता है और तब आनन्द का सृजन । कृष्णविरहातुर गोपियां सर्वत्र कृष्ण का ही दर्शन करने लगती हैं। यह समाधि की अन्तिम स्थिति है। गोपियों की हृदयवीणा की तंत्री झंकृत हो उठती है
जयति तेऽधिक जन्मनावजः श्रयत इन्दिरा शश्वदत्र हि । दयित दृश्यतां दिक्षु तावका स्त्वयि धृतासवस्त्वां विचिन्वते ।'
हे प्रियतम ! तुम्हारे जन्म के कारण ही वैकुण्ठ आदि लोकों से ब्रज की महिमा बढ़ गयी है। तभी तो सोन्दर्य और मधुरता की देवी लक्ष्मीजी अपना वैकुण्ठ-वास छोड़कर यहां नित्य निरन्तर निवास करने लगी है. परन्तु प्रिय ! देखो तुम्हारी गोपियां जिन्होंने अपना सर्वस्व तेरे चरणों में समर्पित कर चुकी हैं वन-वन में भटककर तुम्हें ढूंढ रही है। वैदर्भी आदि रीतियां
साहित्याचार्यों ने रीति को चार प्रकार से विभाजित की हैवैदर्भी, पांचाली, गौडी और लाटी। वैदर्भी सबसे ज्यादा काव्य के लिए उपयुक्त है । ललित वर्गों का विन्यास, भावों की सम्प्रेषणीयता आदि वैदर्भी की विशिष्टतायें हैं। श्रीमद्भागवत की स्तुतियों में वैदर्भी के अलावे अन्य रीतियां भी प्रसंगानुकूल प्राप्त होती हैं। वैदर्भी का तो स्तुतियों पर एकाधिपत्य जैसा लगता है।
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१. रसगंगाधर ११२ २. श्रीमद्भागवत १०.३१.१
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