Book Title: Shrimad Bhagawat ki Stutiyo ka Adhyayana
Author(s): Harishankar Pandey
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 281
________________ श्रीमद्भागवत की स्तुतियों में गीतितत्व, छन्द और भाषा २५५ मनोरमता सर्वत्र विद्यमान है। शब्दों की श्रुतिमधुरता और अर्थ-गाम्भीर्य इस स्तोत्र का वैशिष्ट्य है । "भक्ति रहित जीव ही संसार में कष्ट पाते हैं--- इस रहस्योद्घाटन में भाषा की अभिव्यंजकता एवं सहज सम्प्रेषणीयता अवलोकनीय हैतावद्भयं द्रविणगेहसुहृन्निमित्तं शोकः स्पृहा परिभवो विपुलश्च लोभः । तावन्ममेत्यसदवग्रह आतिमूलं यावन्न तेऽङ ध्रिमभयं प्रवृणीत लोकः ॥ ऋषिगणकृत वाराहस्तुति (३.१३.३४-४५) में प्रसादगुणमण्डित रमणीय शब्दों का सौन्दर्य हृदयावर्जक है। भगवान् के शरीर एवं विविधाङ्गों के वर्णन के प्रसंग में कोमल पदावली का विन्यास हआ है, वही उनकी, वीरता, पराक्रम को उद्घाटित करने के लिए गभीर पदों का विनियोग किया गया है । रूपकों के प्रयोग से भाषिक सम्प्रेषणीयता को अत्यधिक बल मिला है । सुन्दर रूपक का उदाहरण -- जिसमें भगवान् वाराह को यज रूप में, उनके थथनी, नासिक छिद्रों, उदर, कानों, मुख, कण्ठ छिद्र एवं चबाना आदि अंगों एवं क्रियाओं को क्रमश: यज्ञीय स्रुक सूवा, इडा (यज्ञीय भक्षण पात्र) चमस, प्राशित्र, सोमपात्र एवं अग्निहोत्र के रूप में रूपायित किया गया है सकतुण्ड आसीत्व ईश नासयो रिडोदरे चमसाः कर्णरन्ध्रे । प्राशिवमास्ये ग्रसने ग्रहास्तु ते यच्चर्वणं ते भगवन्नग्निहोत्रम् ॥ "जितं जितं तेऽजित यज्ञभावन' में काव्यलिंग एवं अनुप्रास अलंकारों की समन्वित चारुता एवं 'मतङ्गजेन्द्रस्यसपत्रपद्मिनी' में उपमोत्प्रेक्षा का सौन्दर्य अवलोकनीय है। इस स्तोत्र में लघु सामासिक पदों का विनियोग हुआ है। पंचशलोकीय सनकादिकृत विष्णु स्तुति (३.१५.४६.५०) की भाषा श्रुतिमधुर है । यत्र-यत्र लघु सामासिक पदों का प्रयोग हुआ है। प्रसाद गुण का प्रभाव सर्वत्र परिलक्षित होता है। भक्ति विवेचनावसर पर भाषिक सौन्दर्य कितना सुन्दर बन पड़ा है...-- कामं भवः स्ववृजिननिरयेषु नः स्ताच्चेतोऽलिवयदि नु ते पदयो रमेत । वाचश्च नस्तुलसिवद्यदितेऽङ ध्रिशोभाः पूर्येत ते गुणगणयदि कर्णरन्ध्रः॥ गर्भस्थ जीव कृत विष्णु-स्तुति (३.३१.१२-२१) हृदयावर्जक भाषा में निबद्ध है। भावी संकट की आशंका एवं संसार की बन्धन रूपता को लक्षित कर मातृगर्भस्थ जीव आतंकित हो उठता है। उसकी भावनाएं १. श्रीमद्भागवत महापुराण ३.९.६ २. तत्रैव ३.१३.३६ ३. तत्रैव ३.१५.४९ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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