Book Title: Shrimad Bhagawat ki Stutiyo ka Adhyayana
Author(s): Harishankar Pandey
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 290
________________ २६४ श्रीमद्भागवत की स्तुतियों का समीक्षात्मक अध्ययन है। वे अपनी निजशक्ति के फलस्वरूप सृष्टि के विभिन्न पदार्थों की सर्जना करते हैं। श्रीमद्भागवत महापुराण में बहुदेव-विषयक स्तुतियां उपन्यस्त हैं। सबसे अधिक श्रीकृष्ण की स्तुति की गई है। श्रीकृष्ण को सर्वश्रेष्ठ सत्ता के रूप में स्वीकृत किया गया है। इसके अतिरिक्त विष्णु, शिव, राम, संकर्षण, सूर्य, चन्द्र, आदि देवों की भी स्तुतियां की गई हैं। उन स्तुतियों में तत्संबद्ध देव विशेष का स्वरूप स्पष्टरूपेण उभरकर सामने आता है। अतिशय दयालुता, कृपावत्सलता, भक्तरक्षणतत्परता, सर्वसमर्थता सर्वव्यापकता आदि गुण सामान्य रूप में पाये जाते हैं। विष्णु के विभिन्न अवतार वाराह, कूर्म, नसिंह एवं हसादिदेवों के स्वरूप पर भी प्रकाश डाला गया है। भागवतीय स्तोत्रों में भक्ति का साङ्गोपाङ्ग विवेचन उपलब्ध होता है। भगवान् श्रीकृष्ण में अनन्यरति को भक्ति कहा गया है । जिस प्रकार गंगा की अखंडधारा समुद्र में गिरती है, वैसे ही प्रभु चरण में अविच्छिन्न रति भक्ति है । इसके दो भेद होते हैं --साधन भक्ति और साध्य भक्ति । स्मरण, कीर्तन, वंदन, पादसेवनादि नवधा भक्ति साधन भक्ति के अन्तर्गत है, इसे ही गोणी भक्ति भी कहते हैं । साध्य भक्ति की सर्वश्रेष्ठता सर्वविदित है। वह मोक्ष, ज्ञान, वैराग्य और कर्म से श्रेष्ठ है। वह प्रेमरूपा, अमृतस्वरूपा है, उसमें संपूर्णरूपेण समर्पण की भावना निहित रहती है। उसे ही आचार्य शाण्डिल्य ने “सा तु परानुरक्तिरीश्वरे" और भक्त प्रवर नारद ने "तदपिताऽखिलाचारिता तद्विस्मरणे परमव्याकुलतेति" और "सा तु अमृतस्वरूपा च" कहा है । इसे ही प्रेमा, रागानुगा और एकनिष्ठा भक्ति भी कहते हैं । भक्त ब्रह्मलोक, भूमण्डल का साम्राज्य, रसातल का एकाधिपत्य, योग की सिद्धियां, यहां तक मोक्ष का भी तिरस्कार कर केवल भगवद्भक्ति की कामना करता है। वह वैसा कुछ भी नहीं चाहता जहां पर भगवान् के चरणरज की प्राप्ति न हो। व्युत्पत्त्यर्थ की दृष्टि से भक्ति का द्विविधत्व सिद्ध है। प्रथम भजसेवायाम् से निष्पन्न सेवा रूपा भक्ति तथा "भंजोआमर्दने" से निष्पन्न "भवबन्धनविनाशिका" या "भवरोगहन्त्री" भक्ति । दोनों एक दूसरे के पूरक हैं । जैसे-जैसे प्रभु चरणसेवा या चरणरति की वृद्धि होती जाती है वैसे-वैसे संसारिक भावों से उपरतता होती जाती है, और जैसे-जैसे संसारिक क्रियाओं से किंवा भवबन्धन से मुक्ति मिलती जाती है वैसे-वैसे प्रिय के साथ संबन्ध दृढ़ होता जाता है। स्तुतियों में उत्कृष्ट काव्य के सभी गुणों की प्रतिष्ठापना पूर्ण रूपेण पायी जाती है। माधुर्यादि गुणों का सन्निवेश, शुद्धसंस्कारयुक्त भाषा, अलंकारों की चारूता, प्रसंगानुकूल शैली का प्रयोग, मनोरम एवं श्रुतिमधुर Jain Education International For Private & Personal Use Only ___www.jainelibrary.org

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