Book Title: Shrimad Bhagawat ki Stutiyo ka Adhyayana
Author(s): Harishankar Pandey
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 283
________________ श्रीमद्भागवत की स्तुतियों में गीतितत्व, छन्द और भाषा २५७ दुर्लभ है । जब धरती का एकक्षत्र सम्राट महेन्द्र राज्य एवं स्वर्ग से ऊपर उठकर प्रभु चरण सेवा की याचना करता है तब भाषिक सौन्दर्य अत्यन्त उदात्त बन पड़ा है । अवलोकन करने योग्य है- प्रस्तुत संदर्भ जहां पर भक्ति और मुक्ति, स्वर्ग और अपवर्ग, ज्ञान और योग को तिरस्कृत कर भक्त सहस्रो कानों की याचना इसलिए करता है कि वह प्रभु का नाम कीर्तिन गुण-गान जितना अधिक हो कर सके न कामये नाथ तदप्यहं क्वचित् न यत्र युष्मच्चरणाम्बुजासवः । महत्तमान्तह दयान्मुखच्युतो विधत्स्व कर्णायुतमेष मे वरः। लघु सामासिक पदों का प्रयोग एवं प्रसाद गुण के वेशद्य के साथसाथ भावों की सहज एवं सशक्त अभिव्यंजना के कारण भाषा सुन्दर है। प्रचेतागणकृत विष्णु स्तुति (४.३०.२२.४२) की भाषा अत्यन्त सरल है जिसके माध्यम से भावों की सुन्दर अभिव्यंजना हुई है। लघु सामासिक पदों का विरल प्रयोग हुआ है, जो प्रसादगुण से मण्डित है। यमकृत हरिस्तुति (६.३.१२-३०) में उपजाति, अपुष्टुप् एवं वसन्ततिलका छन्दों के साथ अर्थालंकारों की सातिशय मनोरम अभिव्यंजना के फलस्वरूप उसकी भाषा रमणीय बन पड़ी है। इस स्तोत्र में यत्र-तत्र लघु काय समासबहुला पदों का विनियोग हुआ है तथा यह प्रसाद गुण से पूर्णतः प्रसिक्त है। प्रजापतिदक्षकृत विष्णुस्तुति (६.४.२३-३४) जो मभी कामनाओं को देने वाला "हंसगुह्यस्तोत्र" नाम से प्रसिद्ध है, उसकी भाषा प्रसाद एवं माधुर्य गुण से मण्डित एवं रमणीय पद-विन्यास से सुसज्जित है। आनुप्रासिक छटा अवलोकनीय है न यस्य सख्यं पुरुषोऽवति सख्युः सखा वसन संवसतः पुरेऽस्मिन् । गुणो यथा गणिनो व्यक्तदृष्टेः तस्मै महेशाय नमस्करोमि ।। वृत्रासुरकृतभगवत्स्तुति (६.११.२४-२७) लघु कलेवरीय होते हुए भी भगवद्भक्तिपूर्ण है। भक्त हृदय से संभूत स्वाभाविक भाषा का प्रयोग हुआ है । यह प्रसाद गुण से संवलित तथा श्रुतिमधुर है। एक ही श्लोक में तीन-तीन दृष्टान्तों के प्रयोग से भाषा सम्प्रेषणीयता, सहजाभिव्यंजकता एवं स्वाभाविक-चारुता से युक्त हो गयी है। स्वभावरमणीय एवं निसर्ग सौन्दर्यावेष्टित श्लोक दर्शनीय एवं श्रवणीय है। चित्रकेतु कृत भगवत्स्तुति (६.१६.३४-४८) की भाषा प्रांजल एवं उदात्त है । संसार से विरक्त चित्रकेतु भागवत-धर्म की महत्ता एवं भक्ति १. श्रीमद्भागवत महापुराण ४.२०.२४ २. तत्रैव ६.४.२४ ३. तत्रैव ६.११.२६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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