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श्रीमद्भागवत की स्तुतियों का समीक्षात्मक अध्ययन
हस्तिनापुर कुलरमणीकृत श्रीकृष्ण स्तुति वंशस्थ और इन्द्रवंश मिश्रित उपजाति छन्द में निबद्ध है । प्रसाद गुण से संवलित नारी सुलभ सरल शब्दावली का प्रयोग हुआ है । दार्शनिक विचारों की मनोरम शय्या पर शृंगार रस का मोहक एवं विलक्षण दृश्य यत्र-तत्र दृष्टिगोचर होता है । भाव - प्रकाशन में नैसर्गिक रमणीयता एवं स्वाभाविक कोमलता विद्यमान है । शब्द सौष्ठव एवं पदावली का मधुमय विन्यास हृदयावर्जक है । समासरहित या छोटे-छोटे समासयुक्त पदों का विनियोग हुआ है ।
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भाषा सौष्ठव की दृष्टि से भीष्मकृत श्रीकृष्ण स्तुति अतुलनीय है । इस स्तोत्र में एक तरफ भक्ति की शान्तसलिला विद्यमान है, तो दूसरी तरफ भीष्म प्रयाण से करुणा का अगाधसागर और इसी बीच बीररस का सौन्दर्य संगम का काम करता है । भीष्म ज्ञानी हैं। मन वाणी और वृत्तियां सब कुछ श्रीकृष्ण में एकत्रावस्थित कर चुके हैं। इनकी भाषा ज्ञानी भक्तों की भाषा है । श्रीकृष्ण के युद्धवीर रूप के वर्णन - " धृतरथच रणोऽभ्ययाच्चलद्गुः” में चित्त का विस्तार एवं दीप्ति युक्त ओजगुण का सौन्दर्य अवलोकनीय है तो " त्रिभुवनकमनं तमालवर्ण" आदि में माधुर्य की सातिशय कोमलता ।
आत्मविद्याविशारद, आत्मक्रीड, विजितात्मा श्रीशुकदेव कृत भगवत् स्तुति की भाषा अत्यन्त सुन्दर है । इस स्तोत्र में दार्शनिक तत्त्वों के विवेचनावसर पर जहां सामासिक पदावलियां प्रयुक्त हैं, वहां भक्ति संबंधी आत्म-समर्पण की महिमा विवेचन के लिए सरल, सुबोध, श्रुतिमधुर शब्द भी गुम्फित हैं । भक्ति विवेचन के अवसर पर प्रसाद गुणमण्डित सुन्दर शब्दों का विन्यास कितना हृदयावर्जक बन पड़ा है -
यत्कीर्तनं यत्स्मरणं यदीक्षणं यद्वन्दनं यच्छ्रवणं यदर्हणम् । लोकस्य सद्यो विधुनोति कल्मषं तस्मै सुभद्रश्रवसे नमो नमः ॥ यद्ङ प्रचभिध्यानसमाधिधौतया धियानुपश्यन्ति हि तस्वमात्मनः । वदन्ति चैतत्कवयो यथारुचं स मे मुकुन्दो भगवान् प्रसीदताम् ॥'
उपरोक्त पंक्तियों में जहां "सुभद्रश्रवसे" शब्द का प्रयोग आत्मसमर्पण घोषित करता है, वहां 'प्रसीदताम्' की चारु-योजना द्वारा भगवान् के अनुग्रह प्रसाद की वर्षा के लिए पराभक्ति की अभिव्यंजना की गई है। समष्टि में व्यष्टि की एकात्मकता की तीव्रकामना है । सर्वत्र तमधुर शब्दावली अनुगुंजित है ।
तृतीय स्कन्धान्तर्गत ब्रह्माकृत विष्णु स्तुति ( ३.९.१ - २५ ) की भाषा रमणीय है । इस स्तोत्र की पदशय्या रुचिकर एवं हृदयावर्जक है । गोड़ीरीति में निबन्धन के कारण समास - बहुला पदावली है, लेकिन प्रसाद गुण की
१. श्रीमद्भागवत महापुराण २.४.१५ एवं २.४.२१
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