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श्रीमद्भागवत की स्तुतियों का काव्यमूल्य एवं रसभाव योजना
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थी, तब आपकी आंखों में आंसू छलक आए थे, काजल कपोलों पर
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बह चला था, नेत्र चंचल हो रहे थे और भय की भावना से आपने अपने नेत्र को नीचे की ओर झुका लिया था। आपकी उस दशा का - - लीला छबि का ध्यान कर मोहित हो जाती हूं । भला जिससे भय भी भय मानता उसकी यह दशा । "
श्रीकृष्ण जन्म के बाद वसुदेव श्रीकृष्ण का रूप सौन्दर्य देखकर अत्यंत हर्षित हो गए । यह जानकर कि पुत्र रूप में स्वयं भगवान् ही आए हैं, अत्यन्त भावविह्वल हो गए
तमद्भुत बालकमम्बुजेक्षणं चतुभुजं शङ्खगदार्युदायुधम् । श्रीवत्स लक्ष्मं गलशोभिकौस्तुभं पीताम्बरं सान्द्रपयोदसौभगम् || महार्ह वैदूर्य किरीटकुण्डलत्विषा परिष्वक्तसहस्त्रकुन्तलम् । उद्दामकाञ्च्यङ्गदकङ्कणादिभिः विरोचमानं वसुदेव ऐक्षत | जहां भी वात्सल्यरस का चित्रण है वहां भक्त सिर्फ प्रभु से लौकिक सम्बन्ध ही स्थापित नहीं करता बल्कि प्रभु के वास्तविक स्वरूप ( माहात्म्य ) को भी जानता है । देवकी विराट् प्रभु के रूप की अपेक्षा वह अपने पुत्र श्रीकृष्ण को ही देखना चाहती है
उपसंहर विश्वात्मन्नदो रूपमलौकिकम । शंखचक्रगदापद्मश्रिया जुष्टं चतुर्भुजम् ॥
इस प्रकार स्तुतियों में वात्सल्यरस का यत्र-तत्र उल्लेख मिलता है । (५) मधुर भक्तिरस
मधुररति ही मधुरभक्तिरस का स्थायी भाव है । अपने अनुरूप विभावदिकों के द्वारा सहृदयों के हृदय में पुष्टि को प्राप्त, मधुरारति को मधुर भक्तिरस कहा जाता है । भगवान् श्रीकृष्ण एवं उनकी प्रिय बल्लभाएं आलम्बन विभाव हैं । भगवान् श्रीकृष्ण का सौन्दर्य त्रिभुवन में अनुपमेय है, उनकी लीलामाधुर्य लोकोत्तर है । अत्यन्त रमणीय, मधुर, समस्त शुभलक्षणों से युक्त, अत्यन्त बलवान्, नित्य नूतन, नव-युवा, प्रेमपरवश, मदनमोहन श्यामसुन्दर और उनके लहराते हुए बाल तथा फहराता हुआ पीताम्बर से युक्त श्रीकृष्ण पर क्षणभर के लिए भी जिन आंखों की दृष्टि पड़ी की सदा-सर्वदा के लिए उन्हीं की हो गयी ।
थोड़ी सेवा से रीना, हमेशा मुस्कराते रहना, श्रीकृष्ण की प्रेममयी
१. श्रीमद्भागवत महापुराण १.८.३१
२. तत्रैव १०.३.९-१०
३. तत्रैव १०.३.३०
४. भक्तिरसामृत सिन्धु - पश्चिम विभाग ५.१-२
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