Book Title: Shrimad Bhagawat ki Stutiyo ka Adhyayana
Author(s): Harishankar Pandey
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 271
________________ श्रीमद्भागवत की स्तुतियों में गीतितत्त्व, छन्द और भाषा २४५ पर शब्दों द्वारा अपने प्रभु का चित्र खींच देता है । पितामह भीष्म के भगवान् का त्रिभुवनकमनीय सौन्दर्य प्रत्येक स्तुति पाठक के सामने बिम्बित होने लगता है। भगवान् भक्त की आर्तपुकार सुनकर गरुड़स्थ आकाश मार्ग से आ रहे हैं। आज भक्त गजेन्द्र की जन्म जन्मातरीय साधना सफल होने वाली है। वह किसी तरह एक कमल पुष्प लेकर-प्रभु के चरणों में समर्पित कर देता है। इस दृश्य का स्पष्ट चित्र श्रोता के सामने बिम्बित होने लगता है। चित्रात्मकता लगभग सब स्तुतियों में पायी जाती है। पितामह भीष्म भगवान् द्वारा कृत पूर्वलीलाओं का स्मरण कर स्तुति करते हैं। उस स्तुति के प्रत्येक श्लोक में प्रभु के विभिन्न रूपों का चित्र उभर आता है। कुन्ती भगवान् के बालछबि का ध्यान कर स्तुति करती है इस प्रकार श्रीमद्भागवत की स्तुतियों में सर्वत्र चित्रात्मकता का दर्शन होता है। भक्त अपने उपास्य का, अपने हृदयस्थ भावनाओं के अनुसार स्वरूप का सर्जन कर लेता है। जब उस स्वरूप को शब्दों के माध्यम से अभिव्यक्ति प्रदान करता है तब श्रोता या पाठक के सामने उसके प्रभु का स्वरूप बिम्बित होने लगता है। ८. मार्मिकता श्रीमद्भागवत की स्तुतियों में मार्मिकता का समावेश सर्वत्र पाया है। भक्त आत्मनिष्ठ होकर या कष्ट से पीड़ित होकर प्रभु का ध्यान करता है, तब उसके हृदय से मार्मिक शब्द स्वतः ही अभिव्यक्त होने लगते हैं। उन शब्दों का सम्बन्ध बुद्धि से न होकर जीव विशेष के मर्म से होता है । गर्भस्थ जीव मातृगर्भ में प्राप्त कष्टों से एवं भावी संसारजन्य बन्धनों का स्मरण कर आर्त भाव से प्रभु की पुकार करने लगता है-- अधम जीव, जो अनेक योनियों में भ्रमण करता है--सर्वतोभावेन उस शरण्य का शरणागत हो जाता है-उस दयालु प्रभु के चरणों में, दीनबन्धु की शीतल छाया में अपना निवास बना लेता है। दुःख की अवस्था में जो अभिव्यक्ति होती है वह मर्मस्पर्शी तथा भावुकता से पूर्ण होती है। जिस प्रभु के स्वरूप को बड़े-बड़े तपस्वी ऋषि-मुनि लोग नहीं जान पाते तो सामान्य जन कैसे जान सकते हैं, वहीं प्रभु जीवों की रक्षा करेंगे। गजेन्द्र १. श्रीमद्भागवत १.९.३३ २. तत्रैव ८.३.३२ ३. तत्रैव १.८.३१ ४. तत्रैव ३.३१.१२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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