Book Title: Shrimad Bhagawat ki Stutiyo ka Adhyayana
Author(s): Harishankar Pandey
Publisher: Jain Vishva Bharati

Previous | Next

Page 270
________________ श्रीमद्भागवत की स्तुतियों का समीक्षात्मक अध्ययन मूल रूप में पाया जाता है । जब भक्त भावातिरेकता अथवा रागात्मिकता अनुभूति से युक्त हो जाता है, उसके हृदय से स्वतः स्तुति काव्य प्रसृत होने लगता है । प्रभु की भक्ति में जब अपने आप को स्थापित कर देता है तब वह गद्गद् कण्ठ से स्तुतियों का गायन करने लगता है । श्रीकृष्ण के द्वारा उपकृत होकर भक्तिमती कुन्ती गद्गद् कण्ठ से भगवान् की स्तुति करने लगती है । वृत्रासुर की स्तुति में भावातिरेकता की ही प्रधानता है: अनन्य भाव से उसके नयन प्रभु के चरणों में लगे हुए हैं, जैसे पक्षविहीन पक्षी, एवं क्षुधार्त गाय का बछड़ा अपने माता के प्रति एवं प्रिय अपनी प्रिया के आतुर रहता है ― अजातपक्षा इव मातरं खगाः स्तन्यं यथा वत्सतराः क्षुधार्ताः । प्रियं प्रियेव व्युषितं विषण्णा मनोऽरविन्दाक्ष दिदृक्षते त्वाम् ॥' ६. भावान्विति २४४ गीतिकाव्य में रागात्मिका अनुभूति ही मूल भावना से अनुप्राणित रहती है । गीतिका केन्द्र बिन्दु वही मूल भाव होता है, जिसका विश्लेषण विस्तार कवि गीति के कलेवर में करता है । भावान्विति बुद्धि द्वारा नियन्त्रण का अभाव नहीं है । जब तक बुद्धि का समुचित नियन्त्रण नहीं प्राप्त होता तब तक भावावेश काव्य के रूप में स्थापित नहीं होता । जब बुद्धि भाव की अपेक्षा गोण होती है तब अभिव्यक्ति का माध्यम काव्य होता है, लेकिन जब बुद्धि की अपेक्षा भाव गौण हो जाता है तब वह काव्य नहीं गद्य कहलाता है । निस्संदेह गीतिकाव्य का सम्बन्ध कवि की रागात्मिका अनुभूति से होता है । स्तुतियों में यह तत्त्व प्रधान रूप से पाया जाता हैं । बुद्धि जब उपास्य के चरणों में स्थिर हो जाती है-भाव का अतिरेक हो जाता है तब स्तुतिप्रारंभ होती है - किम्पुरुष वर्ष में भक्तराज हनुमान् अनन्यभाव से लक्ष्मणाग्रज सीताभिराम श्रीराम की स्तुति करते हैं— सुरोऽसुरो वाप्यथ वानरो नरः सर्वात्मना यः सुकृतज्ञमुत्तमम् । भजेत रामं मनुजाकृति हरि य उत्तराननयत्को सलान्दिवमिति ॥ ' ७. चित्रात्मकता afrator की प्रमुख विशिष्टता है चित्रात्मकता । कवि या पाठक के सामने हृदयगत रागों का चित्र अंकित हो जाता है । स्तुतियों में यह तत्त्व भूरिशः स्थलों पर विद्यमान है । भक्त अपने हृदय में संचित राग के आधार १. श्रीमद्भागवत १.८.१८-४३ २. तत्रैव ६.११.२६ ३. तत्रैव ५.१९.८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 268 269 270 271 272 273 274 275 276 277 278 279 280 281 282 283 284 285 286 287 288 289 290 291 292 293 294 295 296 297 298 299 300