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श्रीमद्भागवत की स्तुतियों का समीक्षात्मक अध्ययन
में वह एकात्म भाव में निष्ठ हो जाता है। इस अवस्था में उसके उपास्य के प्रति उसी के हृदय से वेदना के गीत फूट पड़ते हैं --- श्रीकृष्ण के विरहावेश में उन्हीं के चरण चंचरीक भक्त गोपियां गाने लगती हैं-भगवत्गुणों का रसमय वर्णन करने लगती हैं-----
जयति तेऽधिकं जन्मना वजः श्रयत इंदिरा शश्वदत्र हि। दयित दृश्यतां दिक्षु तावकाः त्वयि धृतासवस्त्वां विचिन्वते ॥'
जब अपना सर्वस्व विनाश होता नजर आने लगता है, चाहे वह प्रभु के द्वारा ही क्यों न हो, उस अवस्था में जीव विशेष अपने पुत्र, पति या अन्य किसी सम्बन्धी को या स्वयं को बचाना चाहता है तब इस आतुरता की स्थिति में संगीत की झिनि स्वर लहरियां झनझनायित होने लगती हैं--- नागपत्नियां इस प्रकार की स्तुति का गायन करती हैं
अनुगृह्णीष्व भगवन् प्राणांस्त्यजति पन्नगः।
स्त्रीणां नः साधुशोच्यानां पतिः प्राण : प्रदीयताम ॥
इस प्रकार स्तुतियों में संगीत तत्त्व की प्राप्ति होती है । २. रसात्मकता
श्रीमद्भागवत की स्तुतियों में अकुण्ठ रस-प्रवाह प्रवाहित है । रसमय काव्य के अध्ययन से चित्त एकाग्रता तथा निश्चयता को प्राप्त करता है। चित्तस्थैर्य ही आनन्द का कारण है । आनन्द ही रसस्वरूप है। भारतीय मनीषियों ने रस को सर्वस्व माना है। "नहि रसादते कश्चिदर्थः प्रवर्तते" अग्निपुगणकार ने काव्य जीवन के रूप में रस को स्वीकृत किया है। "वाग्वैदग्ध्य प्रधानेऽपि रस एवात्र जीवितम्" । स्तुतियों में रस का स्वाभाविक उद्रेक पाया जाता है। कुन्ती कृत स्तुति में वात्सल्य रस स्वाभिक रूप में अभिव्यंजित हुआ हैगोप्याददे त्वयि कृतागसि दाम तावत्, या ते दशाश्रुकलिलाञ्जनसम्भ्रमाक्षम् । वक्त्रं निनीय भयभावनया स्थितस्य, सा मां विमोहयति भीरपि यद्विभेति ॥"
स्तुतियों में वीररस का भी आस्वादन होता है । भीष्मराज स्तव में भगवान् श्रीकृष्ण का वर्णन--
१. श्रीमद्भागवत १०.३१.१ २. तत्रैव १०.१६.५२ ३. भरत, नाट्यशास्त्रम्, अ० ६ ४. अग्निपुराण ३३६।३३ । ५. श्रीमद्भागवत १.८.३१
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