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श्रीमद्भागवत की स्तुतियों में गीतितत्त्व, छन्द और भाषा
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औचित्य भी काव्यगत सौन्दर्य के लिए अत्यावश्यक है । मार्मिक, सरस एवं रसमय अभिव्यक्ति के लिए गणलंकारादि की तरह काव्य में छन्द-योजना की अनिवार्यता सार्वजनीन है।
__ अनादिकाल से यह परम्परा प्रचलित है कि अपने ज्ञान के संवर्द्धन एवं प्रचार-प्रसार के लिए कवि एवं ऋषि छन्दों का आश्रय लेते थे । पूर्ण ऋग्वेद छन्दमयी वाणी का प्रवाह ही है। जब कवि या कलाकार अपने संपूर्ण मनोवृत्तियों को एकत्रित कर स्थित हो जाता है, अपने लक्ष्य में अनन्य भाव से रम जाता है, तब उसी साधना के क्षणों में उसकी वाणी अनायास रूपवती नायिका की तरह प्रकट हो जाती है। वह उपमादि अलंकारों के साथ-साथ वसन्ततिलकादि सुन्दर लय-तालयुक्त छन्दों का जामा भी पहने रहती है।
छन्दों के द्वारा भावसंप्रेषण में सरलता आदि का समावेश हो जाता है। कठिन से कठिन भावों को छन्दों के माध्यम से सहज संवेद्य रूप में अभिव्यक्त कर सकते हैं।
छन्द कवि हृदय से निःसृत एकत्रावस्थित मनोवृत्तियों का सुन्दर प्रवाह है, जो एक नियत और निश्चित दिशा की ओर जाता है। कठिन से कठिन विषयों को छन्दों के माध्यम से सहज ग्राह्य बना लेते हैं। छन्दों के द्वारा ज्ञान को हम स्थिर तथा सर्वजनग्राह्य बनाते हैं। छन्दोमयी भाषा में निबद्ध औपदेशिक वाणी मानव हृदय पर अपना अमिट छाप छोड़ जाती है। काव्य में छन्द का और उसके अनुकूल ताल, तुक विराम और स्वर का उपयोग विषयिगत मनोभावों के संचार हेतु किया जाता है । वस्तुतः छन्द में अद्भुत शक्ति समाहित है, जो मानवता को ढाकने वाले समस्त आवरणों को दूर करने की क्षमता रखती है। भावों को संवेदनशील एवं सहृदयग्राह्य बनाने के लिए छन्दों की अनिवार्यता निश्चित है।
श्रीमद्भागवत की स्तुतियों में अनेक प्रकार के छन्दों का प्रयोग किया गया है। कुछ स्तुतियां एक ही छन्द में निबद्ध हैं तो कुछ में विभिन्न छन्दों का प्रयोग हुआ है। भावानुसार छन्दों का प्रयोग पाया जाता है । वसन्ततिलका, वंशस्थ, अनुष्टुप्, पुष्पिताग्रा, इन्द्रवज्रा, उपेन्द्र वज्रा, उपजाति आदि अनेक छंदों का प्रयोग किया गया है। भक्त अपनी मनोवृत्तियों को एकत्रा-- वस्थित कर समाधि की अवस्था में जब स्तुति करता है तब उसकी वाणी अक्सर एक ही छन्द का आश्रय लेकर प्रवाहित होती है और जब किसी कारणवश सुख या दु:ख के कारण भक्त व्याकुलता, आतुरता या हर्षातिरेक की अवस्था में स्तुति करता है, तो उसकी वाणी विभिन्न छंदों का आश्रय लेती है।
आख्यान, कथाविस्तार, संवाद, देश, नगर, तत्त्वज्ञान, धर्मचर्चा, दर्शन इतिहास एवं धार्मिक तथ्यों के विवेचन एवं निरूपण में अनुष्टुप् छंद
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