Book Title: Shrimad Bhagawat ki Stutiyo ka Adhyayana
Author(s): Harishankar Pandey
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 237
________________ श्रीमद्भागवत की स्तुतियों में अलंकार २११ अन्य अर्थ को सिद्ध या प्रमाणित कर दे, वहां अर्थापति अलंकार माना जाता है । पंडितराज जगन्नाथ ने “दण्डापूपन्याय' का उल्लेख न कर अर्थापति अलंकार में उसी आशय को प्रतिपादित किया है । किसी अर्थ के कथन से तुल्यन्याय से अन्य अर्थ की प्राप्ति अर्थापत्ति है । स्पष्ट है कि दर्शन की अर्थापत्ति विषयक मान्यता को ही स्वीकार कर आचार्यों ने उसी नाम से काव्यालंकार की कल्पना की है। एक अर्थ से अन्य अर्थ का साधन-दण्डापूप न्याय या तुल्य न्याय से एक के कथन से अन्य अर्थ की सिद्धि -अर्थापत्ति अलंकार है। भागवतकार ने अनेक स्थलों पर अर्थापत्ति अलंकार का प्रयोग किया है। ऋषिगण भगवान् सूकर की स्तुति करते समय अर्थापत्ति अलंकार द्वारा हृदयस्थ भावों को अभिव्यंजित करते हैं कः श्रद्दधीतान्यतमस्तव प्रभो रसां गताया भुव उद्विबहंणम् । नविस्मयोऽसौ त्वयि विश्वविस्मये यो माययेदं ससृजेऽतिविस्मयम् ॥' प्रभो ! रसातल में डबी हई इस पृथिवी को निकालने का साहस आपके सिवा कौन कर सकता था ? किन्तु आप तो संपूर्ण आश्चर्यों के आश्रय हैं, आपके लिए यह कोई आश्चर्य की बात नहीं है। आपने ही तो माया से इस आश्चर्यमय विश्व की रचना की है। यहां पर आपके अतिरिक्त इस पृथिवी को कौन बचा सकता है ? अर्थात् कोई नहीं-यहां अर्थापत्ति अलंकार है। "आपको कौन जान सकता ? इस अर्थ के द्वारा कोई नहीं इस अन्य अथे की सिद्धि की गई है। गृह्यमाणैस्त्वमग्राह यो विकारः प्राकृतैर्गुणः । कोन्विहार्हति विज्ञातुं प्राकसिद्धं गुणसंवृतः ॥ वृत्तियों से ग्रहण किए जाने वाले प्रकृति के गुणों और विकारों के द्वारा आप पकड़ में नहीं आ सकते । स्थूल और सूक्ष्म शरीर के आवरण से ढका हुआ कौन सा पुरुष है जो आपको जान सके ? क्योंकि आप तो उन शरीरों के पहले भी विद्यमान थे। यहां कौन आपको जान सकता है ? इस अर्थ के द्वारा 'कोई नहीं जान सकता' इस अन्य अर्थ की सिद्धि की गई है । तथा परमहंसानां मुनीनाममलात्मनाम् । भक्तियोगविधानार्थ कथं पश्येम हि स्त्रियः ॥' आप शुद्ध जीवनमुक्त परमहंसों के हृदय में प्रेममयी भक्ति का सृजन करने के लिए अवतीर्ण हुए हैं। फिर हम अल्पबुद्धि स्त्रियां कैसे जान सकती १. श्रीमद्भागवत ३.१३.४३ २. तत्रैव १०.१० ३२ ३. तत्रैव १.८.२० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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