Book Title: Shrimad Bhagawat ki Stutiyo ka Adhyayana
Author(s): Harishankar Pandey
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 265
________________ श्रीमद्भागवत की स्तुतियों में गीतितत्त्व, छन्द और भाषा २३९ __ पाश्चात्य विद्वानों के द्वारा उद्घाटित इस नयी काव्यविधा का विश्लेषण, विवेचन आधुनिक भारतीय विचारकों ने उनके आधार पर की है। आचार्य श्यामसुन्दरदास के शब्दों में गीतिकाव्य में कवि स्वान्तःकरण में प्रवेश करता है तथा बाह्यजगत् को अपने अन्तःकरण में लाकर उसे अपने स्वभावों से रंजित करता है । आत्माभिव्यंजिका कविता गीतिकाव्य में छोटेछोटे गेय पदों के मधुर भावापन्न आत्मनिवेदन से युक्त स्वाभाविक प्रतीत होती है । कवि का स्वान्तःकरण उसमें स्पष्ट परिलक्षित होता है । वह अपनी अनुभूति से प्रेरित होकर गंय पदों के द्वारा भावात्मिका अभिव्यक्ति प्रदान करता है। गुरुदेव रवीन्द्रनाथ ठाकुर के अनुसार जब दृश्यमान बाह्यजगत् मनुष्य के चेतन जगत् में प्रवेश करता है, तब उससे कुछ अन्य ही उत्पन्न होता है । यद्यपि उसका रूप, ध्वनि, वर्ण आदि सभी अपरिवर्तित रूप में रहते हैं, तथापि वे संवेदन भय, विस्मय, हर्ष विषाद आदि अन्य भावों के द्वारा रंजित होते हैं । इस प्रकार यह जगत मनुष्य के भावगत अनेक गुणों से अनुप्राणित होकर मनुष्य का आत्मीय हो जाता है।' __ वस्तुत: भावातिरेक ही गीतिकाव्य की आत्मा है। कवि अपनी रागात्मिका अनुभूति और कल्पना के द्वारा विषय अथवा वस्तु को भावात्मक रचता है। ___ अनुभूति के कारण ही विभिन्न प्रकार की मानसिक प्रतिक्रिया उत्पन्न होती हैं, क्योंकि गीतिकाव्य में कवि की अन्तर्वृत्ति वस्तु या विषय के साथ स्वानुरूपता स्थापित करती है। प्रो० चन्द्रशेखर पांडेय के अनुसार सुख अथवा दुःख की अनुभूति जब तीव्र से तीव्रतम हो जाती है, तब उदात्त अनुदात्त ध्वनियों के सामंजस्य के द्वारा कवि कण्ठ से जो शब्द निःसृत होते हैं वे ही गीति संज्ञा को प्राप्त होते हैं। वहां पर कवि की की अनुभूति मधुर और कोमल शब्दों से सम्बलित होकर गीति प्रधान सरणि में व्यक्त हो जाती पूर्वोक्त कथनों के सम्यगवलोकन से गीति काव्य के निम्नलिखित तत्त्व परिलक्षित होते हैं १. अन्तर्वृत्ति की प्रधानता २ संगीतात्मकता ३. पूर्वापर सम्बन्ध विहीनता अथवा निरपेक्षता ३. रसात्मकता अथवा रंजकता १. विश्वभारती क्वार्टरली, मई सन् १९३५ ई० २. संस्कृत साहित्य की रूपरेखा प० ३२६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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