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श्रीमद्भागवत की स्तुतियों में अलंकार
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यथाद्रिप्रभवा नद्यः पर्जन्यापूरिताः प्रभो । विशन्ति सर्वतः सिन्धुं तद्वत्त्वां गतयोऽन्ततः॥'
पर्वत से निकलकर समुद्र में गिरती हुई वेगवती नदियों का बिम्ब चाक्षुष प्रत्यक्ष हो जाता है । नदियां उमड़ती-घुमड़ती, कल-कल नाद करती समुद्र में मिल जाती हैं। पर्वत की विशालता का बिम्ब दृष्टिगम्य होता है। चाक्षुष बिम्ब के अतिरिक्त इसमें भाव बिम्ब, ध्वनि विम्ब आदि भी है।
रूपक अलंकार के प्रयोग में भी चाक्षुष बिम्ब अपने रमणीयत्व एवं कमनीयत्व को उद्घोषित करता है--
रोमाणि वृक्षौषधयः शिरोरुहा मेघाः परस्यास्थिनखानि तेऽद्रयः। निमेषणं रात्रयहनी प्रजापतिर्मेढस्तु वृष्टिस्तव वीर्यमिष्यते ॥
इस श्लोक में वृक्ष, औषधी, मेघ, पर्वत, वृष्टि आदि का बिम्ब रूपायित होता है । भागवतकार ने विभिन्न प्रकार के साभिप्राय विशेषणों का प्रयोग किया है। जब भक्त अपने उपास्य की स्तुति करने लगता है, तो तल्लीलागुणरूप से सम्बन्धित विभिन्न प्रकार के विशेषणों का प्रयोग करता है। उन साभिप्राय विशेषणों के प्रयोग में भी चाक्षुष बिम्ब प्राप्त होता है--संश्लिष्ट स्थिर रूप बिम्ब का सुन्दर उदाहरण--
कृष्णाय वासुदेवाय देवकी नन्दनाय च । नन्दगोप कमाराय गोविन्दाय नमो नमः ।। नमः पङकजनाभाय नमः पङकजमालिने ।
नमः पङ कजनेत्राय नमस्ते पङ कजाङघ्रये ।।
उपर्युक्त स्तुति खण्ड में साभिप्राय विशेषणों का प्रयोग किया गया है । "कृष्णाय' के प्रयोग से जनाकर्षक कृष्ण का, वासुदेवाय, पद के पठन से वसुदेव पुत्र का, “नन्दगोपकुमाराय" से उस नटखट अहीर के छोकरे का सौन्दर्य चाक्षुष प्रत्यक्ष हो जाता है । "पङकजनाभाय" से क्षीरशायी विष्णु के अवतार भक्तोधारक श्रीकृष्ण का सर्वाह्लाद्य रूप नेत्रेन्द्रिय के सामने विम्बित होने लगता है।
भीष्मस्तवराज के प्रत्येक पद में चाक्षुष बिम्ब पाया जाता है। पूर्व की घटनाओं को यादकर पितामह स्तुति कर रहे हैं। पहले श्लोक में सष्टि के उद्भव स्थिति एवं लय कारण परमानन्दस्वरूप श्रीकृष्ण का, द्वितीय में विश्व सुन्दर रविकर के समान गौरवाम्बर श्रीकृष्ण का, और शेष श्लोकों में महारथि श्रीकृष्ण का बिम्ब आंखों के सामने प्रत्यक्ष हो जाता है। १. श्रीमद्भागवत १०.४०.१० २. तत्रैव १०.४०.१४ ३. तत्र व १.८.२१-२२
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