Book Title: Shrimad Bhagawat ki Stutiyo ka Adhyayana
Author(s): Harishankar Pandey
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 260
________________ २३४ श्रीमद्भागवत की स्तुतियों का समीक्षात्मक अध्ययन प्रतीक वज्र के द्वारा (सुबोधिनी टीका) वृत्रासुर-त्रासदायिक वृत्ति को मारनी चाहिए । अचला ब्रह्मनिष्ठा का प्रतीक दधीचि है। वृत्रासुर के पूर्व वृतांत वर्णन प्रसंग में शुकदेव महाराज चित्रकेतु की कथा का निरूपण करते to चित्रविचित्रात्मक कल्पनायुक्त मन ही चित्रकेतु है और बुद्धि कृतद्युति है । काम, क्रोध, ईर्ष्या-द्वेष, माया-मानादि के द्वारा अपहित जीव ही अजामिल है । माया के द्वारा अनुबद्ध जीव स्वविशुद्धानंद स्वरूप से गिर जाता है। अन्तकाल में भ्रमवशात् भी भगवत् नामोच्चारण होने से जीव शीघ्र ही चित्रविचित्रात्मिका माया को पार कर जाता है । भेद बुद्धि का प्रतीक दिति है । भेद बुद्धि से ही ममता और अहंकार की उत्पत्ति होती है। सभी दुःखों का मूल भेदभाव है तथा अभेदभाव सभी दुःखों का उच्छेदन है । विवेक के द्वारा ममत्व का विनाश निश्चित है, परंतु अहंभाव का विनाश दुष्कर है। अंधकार सभी जीवों में रहता है और सभी को त्रस्त भी करता है । भगवान् अखिलानंद के चरणों में सर्वस्व समर्पण से अहंकार का विनाश संभव है । हिरण्याक्ष ममता का प्रतीक है, हिरण्यकशिपु अहंकार का मूर्तिमन्तविग्रह है। प्रह्लाद जीव का द्योतक है। जब जीव सर्वात्मभाव से प्रभु के पादपंकजों में शरणागत होता है तब अहंकार का विनाश होता है । एकात्मभाव से भगवान् को भजते हुए प्रह्लाद ने शाश्वत पद को प्राप्त कर लिया। उत्तानपाद जीव मात्र की संज्ञा है। माता के गर्भ में विराजमान सभी जीव उत्तानपाद होते हैं । जन्मकाल में मातृगर्भ से सर्वप्रथम सिर बाहर आता है तब पैर, अतएव सभी जीव उत्तानपाद हैं । जीव मात्र की दो पत्नियां ----सुरुचि और सुनीति । सुरुचि विषयात्मिका वत्ति है तथा सुनीति अखण्डात्मिका वृत्ति का नाम है । जीवों के लिए सुरुचि ही प्रिय होती है, क्योंकि इन्द्रिय स्वेच्छानुरूप वासनाओं में अभिगमन करती है, परन्तु सुनीति वासना से जीवों को रोकती है । सुरुचि का फल उत्तम है । उद् तमः-उत्तमः अर्थात् अज्ञानांधकार । सुनीति का फल ध्रुव अर्थात् अखण्डानंद परमानंद विशेष गजेन्द्र जीव का, सरोवर संसार का और ग्राह काल का प्रतीक है। काम, क्रोध, मोह आदि से पूर्ण यह शरीर ही त्रिकुटाचल है। सुदर्शन ज्ञान चक्र है । ज्ञानचक्र के द्वारा संसृतिकालस्वरूप ग्राह निहत होता है। पांच प्रकार से अविद्या जीवों को बांधती है-(१) स्वरूप विस्मृति (२) देहाध्यास (३) इन्द्रियाध्यास (४) प्राणाध्यास और (५) अन्तःकरणाध्यास के द्वारा । धेनुकासुर देहाध्यास का प्रतीक है। भगवान् के आधिदैविक शक्ति के द्वारा देहाध्यास विनष्ट होता है। बलभद्र ही भगवान् की Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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