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श्रीमद्भागवत की स्तुतियों में अलंकार
का वर्णन है । अतएव काव्यलिंग अलंकार है ।
ब्रह्माकृत भगवत्स्तुति में तो काव्यलिंग अलंकार की मानो माला ही बन गई है। प्रथम से लेकर लगातार तीन श्लोकों में काव्यलिंग का प्रयोग हुआ है ।
ज्ञातोऽसि मेऽद्य सुचिरान्ननु देहभाजां न ज्ञायते भगवतो गतिरित्यवद्यम् । नान्यत्त्वदस्ति भगवन्नपि तन्न शुद्धं मायागुणव्यतिकराद्य दुरुविभास ॥ प्रभो आज बहुत समय के बाद मैं आपको जान सका हूं । अहो कैसा दुर्भाग्य है कि देहधारी जीव आपके स्वरूप को नहीं जान पाते । भगवन् ! आपसे अन्य और कोई वस्तु नहीं है । जो वस्तु प्रतीत होती है वह भी स्वरूपतः सत्य नहीं है क्योंकि माया के गुणों को क्षुभित होने के कारण केवल आपही अनेक रूपों में प्रतीत हो रहे हैं। यहां माया गुण का क्षुभित होना अनेक रूप में भगवत्प्रतीति का कारण बताया गया है । माया के कारण ही भगवान्, जो वस्तुतः एक, अखण्ड हैं, अनेक रूपों में प्रतीत होते हैं ।
तभी तक संसारिक पाप-ताप जीव विशेष को सताते रहते हैं जब तक वह भगवत्चरणचंचरीक नहीं हो जाता। यहां पर भगवत् शरणागति सारे पातको की विनाशिका बताई गई है । देखें -
तावद्भयं द्रविणगेहसुहृन्निमितं शोकः स्पृहा परिभवो विपुलश्च लोभः । तावन्ममेत्यवग्रह आतिमूलं यावन्न तेऽङि घ्रमभयं प्रवृणीत लोकः ॥ इस प्रकार काव्यलिंगालंकार के प्रयोग से भाषा की श्रीवृद्धि हुई । रूपकालंकार
"नाट्यशास्त्र" में उपलब्ध अलंकारों में रूपक का भी महत्त्वपूर्ण स्थान है । स्वरूपगत चारूता तथा कवि परम्परा में प्राप्त प्रतिष्ठा की दृष्टि से उपमा के बाद रूपक का ही स्थान आता है । "रूपयति एकतां नयतीति रूपकम्" अर्थात् भिन्न-भिन्न प्रकट होने वाले उपमान तथा उपमेय में अभेदारोप रूपक कहलाता है। भामह के अनुसार जहां प्रस्तुत और अप्रस्तुत में गुण की समता देखकर अप्रस्तुत के साथ प्रस्तुत तत्त्व निरूपित किया जाय अर्थात् प्रस्तुत पर अप्रस्तुत का आरोप किया जाय वहां रूपक अलंकार होता है । दण्डी का रूप लक्षण उपमालक्षणं सापेक्ष है । जिस उपमा में उपमान और उपमेय का भेद तिरोहित हो जाय वह उपमा अलंकार ही रूपक है । मम्मट, रूय्यक आदि आचार्यों ने दण्डी के रूपक लक्षण को ही स्वीकारा है ।
१. श्रीमद्भागवत ३.९.१
२. तत्रैव ३.९६
२. भामह - अभिनव भारती, पृ० ३२५
४ दण्डी - काव्यादर्श २.६६
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