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श्रीमद्भागवत की स्तुतियों में अलंकार
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क्रम से अनुप्रास के दो भेद होते हैं । अनेक व्यंजनों की एक बार की समानता छेकानुप्रास तथा एक या अनेक वर्णों का अनेक बार सादृश्य वृत्त्यानुप्रास अलंकार है । ये दोनों भेद श्रीमद्भागवत की स्तुतियों में उपलब्ध होते हैं । कविता का विषय है - हृदय की अनुभूति और अनुप्रास का विषय है उच्चारण का सादृश्य विधान । हृदय की अनुभूति एवं उच्चारण के सादृश्य विधान में गहरा सम्धन्ध है । भक्त हृदय की अवस्था दो प्रकार की उल्लास एवं विह्वलता की । जब भक्त हृदय उल्लास से भर जाता है तो वह गाने लगता है और जव विह्वल हो जाता है तो रोने लगता है । गाकर या रोकर भक्त अपने हृदय की भावनाओं को अपने प्रभु के प्रति निवेदित करने लगता है । इन दोनों अवस्थाओं में भाषा में लय और साम्य अनुप्रास का मूल है । भागवतीय भक्त जहां भी उल्लास से उठता है या विह्वलावस्था में अत्यन्त कातर स्वर में प्रभु को वहां उच्चारण] सादृश्य का चमत्कार पाया जाता है । जब उत्तरा कारत स्वर में प्रभु को पुकारती है, उस समय की का अवलोकन कीजिए
उत्पन्न
होता है, जो
पूर्ण
पाहि पाहि महायोगिन् देवदेव जगत्पते ।
नान्यं त्वदभयं पश्ये यत्र मृत्युः परस्परम् ॥'
होती है
" पाहि पाहि एवं देव - देव में वृत्त्यानुप्रास अलंकार है । श्रीकृष्ण कृष्णसख वृष्ण्यृषभावनिक्षुग्राजन्यवंशदहनानपवर्ग वीर्य । गोविन्द गोद्विजसुरातिहरावतार योगेश्वरा खिलगुरो भगवन्नमस्ते ।
२
chi nhánh điện tho
इस श्लोक में "कृष्ण - कृष्ण" में वृत्त्यानुप्रास अलंकार है एवं तृतीय पंक्ति में "गो-गो" आदि शब्दों में छेकानुप्रास अलंकार है ।
१. श्रीमद्भागवत १.८.९
२. तत्रैव १.८.४३
३. तत्रैव १.८.३६
४. तत्रैव १.८.४१
होकर भूम
पुकारता है, तब द्रोण्यास्त्र से भीत
आनुप्रासिक छटा
शृण्वन्ति गायन्ति गृणन्त्यभीक्ष्णशः स्मरन्ति नन्दन्ति तवेहितं जनाः ॥ ` इसमें "न्त" पद पांच बार आवृत्त हुआ है । इसमें वृत्त्यानुप्रास है ।
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अथ विश्वेश विश्वात्मन् विश्वमूर्ते स्वकेषु मे । स्नेहपाशामिमं चिन्धि दृढ़ा पाण्डुषु वृष्णिषु ॥ *
इसमें 'विश्व' इन तीन शब्दों की तीन बार आवृत्ति होने से वृत्यानुप्रास तथा अन्त में " षु" की दो बार आवृत्ति होने से छेकानुप्रास है । श्रीमद्भागवत की स्तुतियों में अनुप्रास अलंकार बहुत अधिक मात्रा में प्राप्त होता है ।
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