Book Title: Shrimad Bhagawat ki Stutiyo ka Adhyayana
Author(s): Harishankar Pandey
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 222
________________ १९६ 1 वृत्त्यानुप्रास का और उदाहरण सुरोऽसुरो वाप्यथवानरो नरः सर्वात्मना यः सुकृतज्ञमुत्तमम् । भजेत रामं मनुजाकृति हरि य उत्तराननयन्कोसलान्दिवमिति ॥ यहां " सुर- सुर" एवं "नर-नर" में वृत्त्यानुप्रास है । भागवतकार ने नामों में भी अनुप्रास के प्रयोग का प्रशंसनीय प्रयास किया है । श्रीमद्भागवत की स्तुतियों का समीक्षात्मक अध्ययन कृष्णाय वासुदेवाय देवकीनन्दनाय च । नन्दगोपकुमाराय गोविन्दाय नमोनमः ॥ नमः पङ्कजनाभाय नमः पङ्कजमालिने । नमः पङ्कजनेत्राय नमस्ते पङ्कजांघ्रये ॥ उपर्युक्त श्लोकों में छेक और वृत्त्यानुप्रास दोनों के उदाहरण मिलते शुकदेवकृत भगवत्स्तुति में अनुप्रास की छटा देखिए । छेकानु प्रासालंकार- यत्कीर्तनं यत्स्मरणं यदीक्षणं यद्वन्दनं यच्छ्रवणं यदर्हणम् । लोकस्य सद्यो विधुनोति कल्मषं तस्मै सुभद्रश्रवसे नमो नमः ॥ ' इसमें न एवं ण की बार-बार आवृत्ति से छेकानुप्रास अलंकार है । श्रीमद्भागवतकार प्रसंगानुकूल वर्णों का प्रयोग करते हैं। जहां कोमलता का आधान करना हो वहां कोमल वर्णों का तथा जहां कठोरता, भयंकरता, वीरता का वर्णन करना हो तो परुष वर्णों का विन्यास करते हैं । श्रीमद्भागवत की स्तुतियों में अधिकांशतः कोमल वर्णों का ही उपन्यास हुआ है । जब भगवान् कृष्ण यदुवंश के रक्षक के रूप में देवकी के गर्भ में निवास करते हैं तब देवलोग गद्गद् स्वर से उस गर्भस्थ प्रभु की अनुप्रासिक शब्दों में स्तुति करते हैं सत्यव्रतं सत्यपरं त्रिसत्यं सत्यस्य योनि निहितं च सत्ये । सत्यस्य सत्यमृत सत्यनेत्रं सत्यात्मकं त्वां शरणं प्रपन्नः ॥ "स, त्, य" इन तीन वर्णों की अनेक बार आवृत्ति होने से इसमें वृत्त्यानुप्रास, साभिप्राय विशेषणों के प्रयोग से परिकर अलंकार एवं उत्कृष्टता का प्रतिपादन होने से उदात्त अलंकार तथा तीनों के तिल तण्डुल न्याय से उपस्थिति होने से संसृष्टि अलंकार है । गीतों में अनुप्रास की छटा दर्शनीय है । १. श्रीमद्भागवत ५.१९.८ २. तत्रैव १.८.२१-२२ ३. तत्रैव २.५.१५ ४. तत्रैव १०.२.२६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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