Book Title: Shrimad Bhagawat ki Stutiyo ka Adhyayana
Author(s): Harishankar Pandey
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 212
________________ १८६ श्रीमद्भागवत की स्तुतियों का समीक्षात्मक अध्ययन अक्षरस : ठीक है, परन्तु इस उपदेश के अनुसार हमें तुम्हारी ही सेवा करनी चाहिए क्योंकि तुम्ही सब उपदेशों के परमलक्ष्य हो, साक्षात्भगवान् हो । तुम्ही समस्त शरीरधारियों के आत्मा हो, सहृद् हो, और प्रियतम हो ।' दास्यमिश्रित सख्य (प्रेयोभक्तिरस ) का एक अन्य उदाहरण- सिञ्चाङ्ग नस्त्वदधरामृतपूरकेण हासावलोककलगीतजहृच्छयाग्निम् । नो चेद् वयं विरहजाग्न्युपयुक्तदेहा ध्यानेन याम पदयोः पदवीं सखेते ॥ प्राणबल्लभ ! प्यारे सखा ! तुम्हारी मन्द मन्द मधुर मुस्कान, प्रेमभरी चितवन और मनोहर संगीत ने हमारे हृदय में तुम्हारे प्रेम और मिलन की आग और धधका दी है । उसे तुम अपने अधरों की रसधारा से दो । नहीं तो प्रियतम ! हम सच कहती हैं तुम्हारी विरह व्यथा की आग से हम अपने - अपने शरीर जला देंगी और ध्यान के द्वारा तुम्हारे चरण कमलों को प्राप्त करेंगी । (४) वत्सलभक्तिरस विभावादि के द्वारा पुष्टि को प्राप्त हुआ वात्सल्यरूप स्थायी भाव वत्सलभक्तिरस होता है । इसको विद्वान् लोग वत्सलभक्तिरस न कहकर केवल वात्सल्यरस कहते हैं । ये कृष्ण एवं उनके गुरुजनों को इसका आलंबन मानते हैं । श्यामलदेह, सुन्दर, समस्त शुभ लक्षणों से युक्त, मिदुभाषी, सरलप्रकृति, लज्जाशील, विनयी, पूजनीय जनों का आदर करने वाले, दाता श्रीकृष्ण इसके आलम्बन विभाव हैं। कौमारादि आयु, रूप, वेष, शैशव की चपलता, बात करना, मुस्कराना और लीला आदि वात्सल्यरस के उद्दीपन विभाव हैं ।" सिर का सूंघना, शरीर पर हाथ फेरना आशीर्वाद और आज्ञा देना, लालन-पालन करना, तथाहित का उपदेश करना आदि वत्सलरस में अनुभाव कहे जाते हैं ।" आश्चर्य, स्तम्भन, स्वेद, रोमांच, हर्ष आदि संचारिभाव हैं । स्तुतियों में अनेक स्थलों पर वात्सल्यरस का सुन्दर प्रयोग प्राप्त होता है । कुन्ती, देवहूति, देवकी और वसुदेव की स्तुतियां वात्सल्यरस से युक्त हैं । सती कुन्ती प्रभु के बाल लीलाओं का ध्यान कर मुग्ध हो जाती हैं। वह कहती है- जब बचपन में आपने दूध की मटकी फोड़कर यशोदा मैया को रिझा दिया था, और उन्होंने आपको बांधने के लिए हाथ में रस्सी १. श्रीमद्भागवत १०।२९।३५ २. भक्तिरसामृत सिन्धु, पश्चिम विभाग, ४.१ ३. तत्रैव ४.२-४ ४. तत्रैव ४.९ ५. तत्रैव ४.२० - २१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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